उत्सव का निर्मम समय - नंद चतुर्वेदी की कविता कला की भूमि पर शब्द और कर्म के बीच सम्बन्धों की एक अनवरत तलाश है। आधी सदी की अब तक की अपनी काव्य-यात्रा में उन्होंने उन मानवीय संकल्पों को, जो हमारी 'इस शताब्दी की क्रूरता' के विरुद्ध लिए गये और उन जन-संघर्षों को, जो 'एक ईमानदार दुनिया' को सम्भव बनाने के लिए किये गये, अपने शब्दों में रचा है। रचने के इस क्रम में वे समता के पक्ष में लगातार बोलते रहे हैं लेकिन अपने समय के बहुतेरे दलप्रतिबद्ध कवियों से अलग बने रहते हुए उन्होंने स्वाधीनता के प्रश्न को भी सदा ज्वलन्त बनाये रखा और इस कारण उनका रचना-संसार आज स्पृहणीय हो उठा है। साथ ही, नंदबाबू का कवि मनुष्य की बाहरी दुनिया को बेहतरीन बनाने की चिन्ता तक सीमित नहीं रहता, वह उसकी भीतरी आत्मा की तब्दीली की ज़रूरत को भी उतनी ही प्रखरता से रखता है। अस्तित्व के बुनियादी सरोकारों और सांस्कृतिक सवालों से सम्बद्धता भी उनके कवि-धर्म का अंग रही है। इसलिए उनकी कविता विराट् के विपुल अनुभव की आकांक्षा की कविता भी है। इसी आकांक्षा का एक रूप प्रकृति की माया के प्रति उसके सहज राग में प्रकट होता है। नंदबाबू की कविता, भाषा के एक सच्चे साधक की कविता भी है, जहाँ सन्देश (कथ्य) शब्दों से नहीं आता, शब्दों में होता है—जहाँ भाषा अर्थ खोलती है तो उसका विखण्डन भी करती है। अपने समय पर उनकी टिप्पणियाँ लगातार तीख़ी हुई हैं और उनका व्यंग्य और धारदार। उनकी भाषा बोलचाल की ज़ुबान से जुड़कर ज़्यादा ताक़तवर हुई है। कवि अब अपने ज़माने की विसंगतियों की जवाबदेही इतिहास से भी माँगता है। इस क्रम में वह पुराने मिथकों को तोड़ते हुए सांस्कृतिक प्रतीकों के साथ एक शरारत-भरी छेड़खानी करता है और साथ ही अतीत के खँडहर पर भविष्य की नींव रखता है।—डॉ. नवल किशोर
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