कविता में आग - समकालीन हिन्दी कविता का धरा-आकाश बहुरंगी है। विकास कुमार अपने अध्ययन-विश्लेषण के माध्यम से एक साथ कई पीढ़ियों की काव्यात्मक उपस्थिति को आलोचना के मुक्त आकाश में दिगन्त व्यापी बनाने का सार्थक प्रयास करते हैं। समकालीनता अपने आप में प्रर्याप्त बिखराव लिए हुए हैं। वे 'समकालीन' और 'समकालीनता' जैसे शब्द-पद की समावेशी धारणाओं की बख़ूबी पड़ताल करते हैं। पहचान-पड़ताल के इसी क्रम में न केवल वे समकालीन काव्य-परिदृश्य के परिसर को एक व्यापक फलक प्रदान करते हैं। बल्कि साथ ही कुछ ऐसे कवियों की कविताओं को एक-दूसरे के सम्मुख रखकर काव्य-स्वर की मूल सरणियों को स्पष्टतर करते हैं। इस क्रम में वे काव्य-दृष्टि में आये बदलाव और प्रस्थान बिन्दुओं पर विस्तार से विचार करते हैं। रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, असद जैदी और अरुण कमल जैसे कवियों के काव्य-संवेदनतन्त्र को विशेषतः भाषिक आग्रहों में होने वाले प्रस्थान बिन्दुओं को परिलक्षित करने की चेष्टा स्पष्ट दिखाई देती है। इस दृष्टि से इस पुस्तक का पहला अध्याय बहुत महत्त्वपूर्ण है। यूँ इस आलोचना ग्रन्थ के केन्द्र में लीलाधर मंडलोई के काव्य-संसार पर विधिवत विस्तार से विचार किया गया हैं। अतः एव मंडलोई की काव्य-संवेदना को प्रभावशाली बनाने वाले भाषा, शिल्प, कौशल के कई उप-अध्यायों के अर्न्तगत विश्लेषित किया गया है। इस प्रकार यह पुस्तक मंडलोई जी के काव्य-संसार और विशेषतः उनकी काव्य-भाषा पर एक नयी समझ पैदा करती है। काव्य-विश्लेषण की इस प्रक्रिया के माध्यम से वे न केवल मंडलोई वरन् समकालीन परिदृश्य के परिसर के बहुआयामी सदर्भों को एक नया आकाश भी प्रदान करने में समर्थ प्रतीत होते हैं। —गोविन्द प्रसाद
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