काग़ज़ पे फुदकती गिलहरियाँ - बहुत सारे रंग बन्द हैं इस पोटली में समाज की बुराइयों के लिए ग़ुस्सा है, इंक़लाब की गूंज है, तो अच्छे बदलावों, बेहतर देश के सपने पिरोते गीत भी। बहुत सारा कल्पनाओं, एहसासों का पुलिन्दा है जो शब्दों में सँजोया है, कुछ मतलब कुछ बेमतलब एब्स्ट्रैक्ट-सा। इसमें विरह और अधूरे प्यार के काँटों की चुभन है, तो सच्चे साथी के लिए बेइन्तहाँ प्यार का उद्गार भी। द्वापर युग के अर्जुन का धर्म संकट है तो आज के युग के नेताओं की कारगुजारियाँ भी। स्त्रीवाद को देखने का मेरा अपना नज़रिया है जो कई सारी रचनाओं में झलकता है। 'जियो और जीने दो' मेरा जीवन मन्त्र, और जहाँ-जहाँ उसका दमन होते देखती हूँ, आत्मा के अन्दर, घर के अन्दर या समाज में, मेरी क़लम स्वच्छन्द होकर बोलती है, रोती है, बिलखती है, हुंकार भरती है।
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