ग्रामीण पत्रकारिता : चुनौतियाँ और संभावनाएँ भारत को गाँवों का देश कहा जाता है। आबादी का 70 प्रतिशत हिस्सा अभी भी गाँवों में रहता है। उसकी आजीविका का साधन कृषि और उस पर आधारित उद्योग हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि आज़ादी के सात दशक बीत जाने पर भी यह राजनीतिक मुद्दा ही बना रह गया। प्रशासनिक स्तर पर विकास के केन्द्र में कभी ग्रामीण भारत नहीं आ पाया। विकास का प्रवाह शहरोन्मुखी ही रहा। 70 प्रतिशत आबादी की उपेक्षा कर भारत को समृद्ध बनाने का दिवास्वप्न देखा जाता रहा। देश में कहीं भी गाँव को शहर नहीं बनाया गया बल्कि शहर की गाँवों में घुसपैठ कराती जाती रही। बात सिर्फ़ बुनियादी सुविधाओं की नहीं, संस्कृति की है। हिन्दी और भाषाई पत्रकारिता भी काफ़ी हद तक शहरोन्मुखी रही है। लेकिन हाल के वर्षों में भारत के ग्रामीण समाज में एक तरफ नवसाक्षर वर्ग उभरा है तो दूसरी तरफ़ बेहतर क्रयशक्ति से लैस नव उपभोक्ता वर्ग भी सामने आया है। मीडिया इस नये पाठक वर्ग तक पहुँचने को ललायित है और कार्पोरेट कम्पनियाँ नये उपभोक्ता वर्ग तक अपनी पहुँच बनाने को ग्रामीण हाट तक पहुँचने को बेकरार हैं। इसके कारण ग्रामीण पत्रकारिता को एक नयी ऊर्जा प्राप्त हुई है। ग्रामीण पत्रकारों को मीडिया संस्थानों में स्पेस मिलने लगा है। वरिष्ठ पत्रकार सुशील भारती ने ग्रामीण भारत को क़रीब से देखा है और उनके अन्दर हो रहे परिवर्तनों को समझने की निरन्तर चेष्टा की है। उनका मानना है कि आनेवाला समय ग्रामीण पत्रकारिता का है। वह समय दूर नहीं जब गाँवों-क़स्बों से समाचार पत्रों के संस्करण प्रकाशित होंगे और ग्रामीण पत्रकारों के लिए पत्रकारिता आजीविका का भरोसेमन्द साधन बन जायेगी। इस पुस्तक में उन्होंने ग्रामीण भारत में होनेवाले बदलावों की चर्चा के साथ पत्रकारों को उन की भावी भूमिका के लिए तैयार होने के गुर भी बताये हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय और इसमें रुचि रखने वाले लोगों के लिए यह एक उपयोगी पुस्तक हो सकती है। वैसे भी ग्रामीण पत्रकारिता पर केन्द्रित पुस्तक का अभी अभाव है। इस लिहाज से इस पुस्तक को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
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