दीमक - डॉ. केशुभाई देसाई का यशोदायी गुजराती उपन्यास 'ऊधई' अपने आपमें एक अनूठी कलाकृति होने के साथ-साथ साहित्यकार के सामाजिक दायित्व का उत्कृष्ट उदाहरण है। हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक समस्या ने पिछले कुछ बरसों से जो विकृति का रूप धारण किया है, किसी भी संवेदनशील साहित्यकार की अन्तरात्मा को झकझोरने के लिए काफ़ी है। डॉ. केशुभाई देसाई उत्कृष्ट कथाशिल्पी होने के साथ ही कर्मनिष्ठ कार्यकर्ता भी हैं, अतः उन्होंने इस समस्या पर लेखनी चलाना अपना धर्म समझा। पीढ़ियों से चला आ रहा साम्प्रदायिक सौमनस्य अचानक वैमनस्य की आग में कैसे परिवर्तित हो गया? कथानायक बचू को यह पहेली समझ में नहीं आ रही। उसके लिए तो अपने हिन्दू पड़ौसी ईजूफूफी व ढींगा जैसे स्वजनों से भी ज़्यादा आत्मीय हैं। देहात में रहते-रहते उसने कभी कल्पना तक नहीं की थी कि एक दिन शहर की साम्प्रदायिक गुण्डागर्दी उसके परिवार को नेस्तनाबूद करके छोड़ेगी। और तब अपने ही सहधर्मियों के हाथों घायल होकर अस्पताल के बिछौने पर दम तोड़ने से पहले वह अपनी पड़ौसन ढींगा के लिए नेत्रदान करने की इच्छा प्रकट करने के अलावा कर ही क्या सकता था? कथानायक बचू की शहीदी से पूरे भारतवर्ष की उस स्थापित मूल्यपरक एवं सहिष्णु जीवन-रीति के सामने प्रश्नचिह्न लग जाता है। उपन्यासकार ने बड़े ही कलात्मक ढंग से पाठकों के समक्ष राष्ट्रीय अस्मिता के मूल को कुरेदने वाली इस 'दीमक' के प्रति अँगुलि-निर्देश किया है। भारतीय ज्ञानपीठ डॉ. केशुभाई देसाई की इस सीमाचिह्न रूप कृति को राष्ट्र के बृहद् समुदाय के सम्मुख भेंट करते हुए गरिमा अनुभव कर रहा है।
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