दरअसल विशिष्ट सामाजिक जीवन की सम्बद्धता और बौद्धिक विशिष्टता की सीमाओं को न माननेवाली गाडगिल जी की हास्य-प्रवृत्तियों ने घेरों को कभी नहीं माना। किर्लोस्कर-देवल की अभिजात हास्य-साहित्य की परम्परा के कायल गाडगिल ने हमेशा अभिजात, मूल्यपरक और स्वाभाविक हास्य को तरजीह दी और लक्ष्मीबाई तिलक के हास्य को अपना आदर्श माना है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि गाडगिल अभिजात हास्य-परम्परा की लकीर का अनुसरण करते हुए उसकी अगली कड़ी-भर रह गये। परम्परा की कतिपय प्रवृत्तियों और समानताओं के बावजूद गाडगिल जी के हास्य-व्यंग्य की अपनी अलग अस्मिता रही है। परम्परा को नये आयाम दिलाने के साथ गाडगिल उन नवीन प्रवृत्तियों को भी गढ़ते हैं जिनका संकेत तक परम्परा में नहीं है। प्रस्तुत है एक समर्थ हास्य-व्यंग्यकार की महत्त्वपूर्ण कृति का नया संस्करण।
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