बादल राग - 'स्त्रियों का मन समझने के लिए स्त्री ही होनी चाहिए' यह धारणा दामोदर खड़से ने अपने उपन्यास 'बादल राग' में ग़लत सिद्ध कर दी है। स्त्री केन्द्रित अनुभवों को साहित्य-रूप देते समय केवल पारिवारिक, सामाजिक वास्तविकता का ही विश्लेषण काफ़ी नहीं है, बल्कि स्त्री-मन की अन्तर-व्यथा-वेदनाओं की दैहिक अनुभूतियों के परिणामों का भी ध्यान रखना होगा। दामोदर खड़से ने इस उपन्यास के माध्यम से इसे अभिव्यक्त किया है। दामोदर खड़से ने इस उपन्यास में सामाजिक रूढ़ियों, नीति-संकल्पनाओं की सुविधाजनक सीमाओं के पार जाकर स्त्री-मुक्ति का स्वावलम्बी मार्ग तलाशने वाली नायिका का संघर्ष और उसकी दृढ़ता का यशस्वी चित्रण किया है। उन्होंने स्त्री मुक्ति के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं के साथ शारीरिक व मानसिक आयामों का भी विचार किया है। शिक्षित स्त्री-पुरुषों का साथ आना केवल काम-वासना के लिए है तो वह पाप ही होगा। लेकिन, आत्म-भान जागृत स्त्री-पुरुष आपसी वैचारिक समानता आधारित एक-दूसरे के व्यक्तित्व को आदरपूर्वक स्वीकार करते हैं तो यह स्त्रीत्व का सम्मान ही है। स्त्री-पुरुष समानता की पैरवी, स्त्रीवादी जीवनदृष्टि इस उपन्यास में बख़ूबी अभिव्यक्त हुई है।
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