आत्मा की पवित्रता - श्री नरेन्द्र कोहली के अनुसार—अनुचित अन्यायपूर्ण अथवा ग़लत होते देखकर जो आक्रोश जागता है, वह अपनी असहायता में वक्र होकर जब अपनी तथा दूसरों की पीड़ा पर हँसने लगता है तो वह विकट व्यंग्य होता है। वह पाठक के मन को चुभलाता-सहलाता नहीं, कोड़े लगाता है। कहना न होगा कि 'आत्मा की पवित्रता' में संगृहीत व्यंग्य-रचनाएँ इस दृष्टि से सर्वथा खरी हैं। वैसे नरेन्द्र कोहली की पहचान अब एक यशस्वी गम्भीर लेखक के रूप में अधिक बन चुकी है; लेकिन उनके लेखन की शुरुआत व्यंग्य-लेखन से ही हुई थी; और उसमें उन्हें भरपूर प्रतिष्ठा भी मिली। बीच में उनके भीतर का व्यंग्यकार कुछ अनमना अवश्य लगता रहा; मगर सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों ने उन्हें जब भी परेशान किया, उन्होंने पूरी दमदारी के साथ व्यंग्य लिखा और समस्या पर सात्त्विक तथा ईमानदार चोट की। निस्सन्देह एक अरसे बाद प्रकाशित नरेन्द्र कोहली की यह नवीनतम व्यंग्य-कृति पाठकों के लिए सुखद आश्चर्य तो है ही, धारदार व्यंग्य-लेखन का सार्थक प्रमाण भी है।
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