हरिशंकर परसाई संचयन - हरिशंकर परसाई के लेखन से एक चयन तैयार करना कोई आसान काम नहीं है। ऐसे बहुत कम लेखक हैं, जिन्होंने परसाई जितना प्रभूत लेखन किया और उसमें से भी अधिकतर समसामयिक विषयों पर किया है। उसमें क्या छोड़ा जाये, यह तय करना किसी भी सम्पादक के लिए बहुत कठिन है। फिर भी पूरी कोशिश यह रही है कि इसमें परसाई जी का लिखा शायद ही कुछ उल्लेखनीय है, छूटा हो। हाँ पृष्ठ संख्या को सीमित रखने के लिए उनके उपन्यास अंश इसमें नहीं दिये गये हैं। वैसे भी उनके उपन्यासों का आकार छोटा है और उनका आनन्द उन्हें सम्पूर्ण रूप से पढ़ने में ही है। इसमें उनके लेखन के बाकी सभी रूपों को समेटा गया है। एक व्यंग्य लेखक से परे भी उनकी जो महत्वपूर्ण उपस्थिति है, उसे इसमें दर्ज किया गया है। वह हिन्दी के सबसे महत्वपूर्ण व्यंग्यकार तो थे ही मगर सिर्फ़ वही नहीं थे। उनके व्यंग्य भी कोरे व्यंग्य नहीं हैं, उनमें अपने समय की तमाम धड़कनें बारीकियाँ-जटिलताएँ और तनाव सबसे पठनीय रूप में मौजूद हैं। उनमें समय का पूरा इतिहास है—एक अत्यन्त जागरूक और संवेदनशील लेखक की सम्पूर्ण उपस्थिति है। वह प्रेमचन्द के बाद हमारे सबसे महत्वपूर्ण लेखक हैं और स्वातन्योऔर त्तर भारत का यथार्थ किसी एक लेखक के लेखन में लगभग अपनी सम्पूर्णता में कहीं मिलता है तो ऐसे अकेले लेखक परसाई जी हैं। वह प्रेमचन्द की तरह आज हमारे बीच न होकर भी हमारे वर्तमान का महत्वपूर्ण और ज़रूरी पाठ प्रस्तुत करते हैं। इनकी बातें आज सबसे अधिक याद की जा रही हैं। वह प्रेमचन्द के समान हमारे सबसे उद्धरणीय लेखक हैं। यह संचयन जिन विष्णु नागर ने तैयार किया है, वह स्वयं भी राजनीतिक-सामाजिक विषयों पर लिखनेवाले एक सक्रिय व्यंग्यकार हैं। आशा है, यह परसाई जी के लेखन का सबसे प्रतिनिधि संचयन-संकलन साबित होगा।
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