आधुनिक मराठी साहित्य में गंगाधर गाडगिल का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। ये पाँचवें दशक से आरम्भ होने वाले कहानी के क्षेत्र में नये युग के प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने कहानी के पारम्परिक साँचे को नकार कर उसे नयी संवेदनशीलता और कलात्मक यथार्थवत्ता प्रदान की है। इस नयी संवेदनशीलता के उदय के साथ सहज ही में जो अन्य सन्दर्भ आ जुड़े हैं, वे हैं-महायुद्ध के परिणामस्वरूप सर्वग्रासी विनाश और उससे उपजे जीवन-मूल्य औद्योगीकरण, यंत्र-संस्कृति, नये आर्थिक-सामाजिक अन्तर्विरोध, महानगरीकरण आदि आदि। इस सबके फलस्वरूप गाडगिल की कहानियों में हमें मिलता है जीवन के यथार्थ का व्यामिश्रण, अन्तर्विरोधों का नया भान, मनुष्य के हिस्से में आयी पराश्रयता, अश्रद्धा, अविश्वास और अनाथ होने की वेदना।
गाडगिल की कहानियों में पात्र स्वयम्भू (हीरो इमेज के) न होकर मात्र कथाघटक होते हैं। वे प्रायः अवचेतन मन की सहज प्रवृत्तियों एवं वासनाओं से प्रेरित दैनन्दिन जीवन की गाड़ी खींच रहे 'साधारण मनुष्य होते हैं। कथाकार जब कभी उनकी मानसिक संकीर्णताओं और सीमाओं का विनोद-शैली में उपहास भी करता है, पर वह उपहास वास्तव में मनुष्य के प्रति न होकर 'मनुष्यता' का अवमूल्यन करने वाली पारिवारिक सामाजिक व्यवस्था के प्रति होता है।
प्रस्तुत कृति में गाडगिलजी की ऐसी ही बीस कहानियाँ संकलित हैं। आशा है, हिन्दी पाठक इनके माध्यम से मराठी कहानी के परिवर्तित प्रवाह को भलीभाँति समझ सकेगा।
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