शुद्धि - उपन्यास की शुरुआत परिवार के मुखिया शेर सिंह की मृत्यु से होती है। पंडित जी के कहे अनुसार मृत व्यक्ति की आत्मा, शुद्धि तक घर में रहने वाली है। बस यहीं से शुरू होता है उपन्यास का ताना-बाना... जहाँ मृतक की पत्नी अपने पति की आत्मा के ज़रिये घर-परिवार के लोगों के बदलते व्यवहार और यहाँ तक कि अपनी औलाद के असली चेहरों को भी देख पाती है। पहली मौत के कुछ दिनों के भीतर ही बुजुर्ग के भाई की मौत से हालात इस तरह बदलते हैं कि दोनों भाईयों के बेटों और शादीशुदा पोतों के परिवार भी एक छत के नीचे, एकसाथ रहने को मजबूर हो जाते हैं। दोनों बुजुर्ग भाईयों की विवाहित बेटियाँ और नातिन भी दुःख जताने पहुँचती हैं। इसी बीच हालात तब और पेचीदा हो जाते हैं जब घर के सबसे महत्वपूर्ण बेटे की पत्नी और उसकी लिव-इन-पार्टनर भी एकसाथ गाँव में पहुँच जाती हैं। वे सभी रिश्तेदार जो कभी एकसाथ रहने को तरसते थे इस समय साथ रहते हुए उनका रिश्तों से मोहभंग, घर के बड़े बेटे-बहू का बदलता व्यवहार, ज़मीन-जायदाद और पैसे के लालच के बीच युवाओं की सोच के साथ करवट लेते रिश्तों के कारण घर में स्थितियाँ लगातार बदल रही हैं। राजस्थान के सीमावर्ती शहर बीकानेर से सटे गाँव उदयरामसर में वर्षों के बिछोह के बाद मिल रही नयी पुरानी पीढ़ियाँ, दुःख के समय को भी हँसते-रोते हुए एकसाथ बिताने का सुख उठाती हैं। कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा साथ रहने की इच्छा सबके भीतर होती है कि उसी समय स्थिति अचानक पलट जाती है। नये हालात में तेरह के बजाय साथ रहने वाले दिनों की संख्या लगातार बारी-बारी से बढ़ती रहती है।
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