श्रमण संस्कृति और वैदिक व्रात्य - व्रात्य प्राचीन भारतीय समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग रहे हैं । इन पर हिन्दी में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ सुलभ नहीं है। यह पुस्तक व्रात्य समाज का पहली बार व्यापक परिपेक्ष्य में साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोणों से विशद् अध्ययन है और इसके प्रकाशन से न केवल एक अभाव कि पूर्ति होगी, इस विषय पर विचारोत्तेजक बहस भी हो सकेगी। पुस्तक के ग्यारह अध्यायों में संस्कृत साहित्य में व्रात्य विषयक उल्लेखों का विश्लेषण है। विभिन्न विद्वानों के मत-मतान्तर उद्धृत करते हुए लेखक प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी ने व्रात्यों की असुर, श्रमण, मुनि, पणि, वानर, यक्ष, निषाद, नाग, दास आदि अनेक समुदायों से अभिन्नता मानी है। वे ऋषभदेव को व्रात्य संस्कृति का प्रवर्तक तथा श्रमण संस्कृति को ही व्रात्यों की संस्कृति बताते हैं। दूसरी ओर सिन्धु घाटी की सभ्यता, वैदिक देवता वरुण और शिव से भी व्रात्यों का सम्बन्ध उन्होंने माना है। यह मान्यताएँ विवादास्पद कही जायेंगी, पर इससे भारतीय इतिहास और संस्कृति के एक उपेक्षित पहलू पर नयी बहस उठ सकती है। -प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी
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