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बांग्ला की चर्चित कथाकार तिलोत्तमा मजूमदार का उपन्यास 'वसुधारा' एक ऐसी जनपदीय गाथा है, जो अपनी रचना परिधि में किसी अल्हड़ स्रोतस्विनी का उन्मुक्त आह्लाद छिपाये है तो किसी अनाम महासागर के प्रशान्त वक्ष में उत्तप्त हाहाकार।
माथुरगढ़ के सम्भ्रान्त परिवेश में रहनेवाले शहरी अभिजनों की मानसिकता और अभावग्रस्त शरणार्थियों की अभिशप्त नियति कैसे एक-दूसरे के भावात्मक ताने-बाने को प्रभावित करती है— इसका लेखा-जोखा बेहद रोचक और प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत करती 'वसुधारा' की यह कथा आगे बढ़ती चलती है... और समाप्त जान पड़ती हुई कभी समाप्त नहीं होती। जीवन हमेशा विरोधाभास रचता रहता है। एक तरफ़ महानगर की विशाल अट्टालिकाएँ खड़ी होती हैं तो दूसरी ओर घूरे के ढेर पर हाशिये से नीचे जीवनयापन करनेवालों की झुग्गियाँ पसरती रहती हैं। इस उपन्यास में वर्णित माथुरगढ़ की यही सच्चाई है। यहाँ सम्पन्न मध्यवित्त और सर्वहारा एक साथ रहते हुए पाप-पुण्य, शोषण-सहानुभूति, राग-द्वेष-ईर्ष्या का इतिहास रचते रहते हैं और इन्हीं सबके बीच मनुष्यता की श्रम यात्रा चलती रहती है। नियति द्वारा परिचालित होने के बावजूद, मनुष्य की ख़ूबी है कि वह नियति से लड़ता है और अपनी राह बनाने की कोशिश करता है। शायद इसी के ज़रिये वह चिरन्तन अमृत की वसुधारा की तलाश करता है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रस्तुत है बांग्ला के प्रतिष्ठित 'आनन्द पुरस्कार' से सम्मानित कृति 'वसुधारा'।
आशा है हिन्दी पाठक इस कृति का हृदय से स्वागत करेंगे।
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