वसीयतनामा - हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा के प्रारम्भिक स्वरूप और विकास क्रम के प्रतिनिधि साक्ष्य के रूप में पं. सूर्यनारायण व्यास की उपस्थिति आश्वस्तकारी रही है। व्यंग्य विधा अपनी शैशवावस्था में कितनी चंचल, परिपक्व और सतर्क थी यह व्यास जी के व्यंग्यों को पढ़कर सहज ही जाना जा सकता है। विषयों की विविधता, दृष्टि की नवीनता और स्वयंशोधित शैली व्यास जी को अपने समकालीन व्यंग्य-लेखकों से तो अलगाती ही है, व्यंग्य साहित्य को समृद्धि भी प्रदान करती है। इस अर्थ में भी व्यास जी विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं कि एक उन्होंने ही अपने व्यंग्य लेखों में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का प्रयोग किया है। अपनी चुहलभरी भाषा और नवीन कथनकोण से वे उपहास का ऐसा माहौल रचते हैं कि पाठक पढ़कर गदगद हो उठता है। साहित्य जगत् में शायद ही किसी व्यंग्यकार ने अपने जीवनकाल में ही अपनी मृत्यु पर व्यंग्य लिखा हो। वसीयतनामा में 'आँखों देखी अपनी मौत' भी है तो मृत्यु के बाद उनकी मूर्तिस्थापना को लेकर क्या क्या मसले खड़े होंगे, उस पर 'मूर्ति का मसला' भी। गम्भीर सांस्कृतिक छवि के रचनाकार व्यासजी के सरल हास्य-व्यंग्य लेख और पैरोडियाँ समालोचकों के सम्मुख चुनौतियाँ पेश करती रही हैं। समीक्षा की कसौटी पर खरा उतरने की मंशा के विरुद्ध व्यास जी का रचनाकार अनवरत अपने ही तरह से समर्पित रहा और आलोचकों की संकीर्ण दृष्टि को ललकारता रहा। एक व्यंग्यकार के नाते पं. सूर्यनारायण व्यास का मूल्यांकन होना अभी शेष है। उनके प्रतिनिधि व्यंग्यों का संग्रह 'वसीयतनामा' का प्रकाशन इस दिशा में भी उन्हें जानने-समझने का प्रासंगिक वितान रचेगा, ऐसी आशा है।
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