टूटने के बाद - 'अप्पू को तो पराजित होना ही है हर हाल में। इस समाज को अप्पू नहीं चाहिए।' युवा रचनाकार संजय कुन्दन का उपन्यास 'टूटने के बाद' भारतीय मध्यवर्ग की समकालीन संरचना को परखते हुए व्यापक सामाजिक संवेदना के साथ उसकी समीक्षा करता है। अप्पू की नियति पराजय क्यों है और कैसा है वह समाज जिसको नैतिकता, मनुष्यता, सार्थकता, पक्षधरता और संवेदना से संचालित अप्पू नहीं चाहिए ऐसे बहुत सारे सवाल 'टूटने के बाद' में मौजूद हैं। सामान्य से भी निम्न स्थिति से उबरकर बड़े पद तक पहुँचे रमेश और उनकी पत्नी विमला परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव या महत्त्वाकांक्षा की दौड़ के कारण अपने-अपने अजनबी बन कर रह जाते हैं। उनके बेटों अभय और अप्पू की अपनी अलग-अलग दुनिया है। अभय अपनी इच्छाओं की राह पर चलते हुए शेष परिवार को अपदस्थ कर देता है। विमला अपनी छोटी बहन कमला के पारिवारिक संघर्ष में जिस तरह हस्तक्षेप करती है उससे उनके जटिल जीवन की राह भी सुगम होती है। कैरियरिस्ट आरुषि और आकाश छूने को आतुर रमेश के घात-प्रतिघात में रमेश की पराजय को संजय कुन्दन ने बेहद रोचक शैली में शब्दबद्ध किया है। अप्पू सार्थकता की तलाश में कार्टून बनाने से लेकर डॉ. कृष्णन के चुनाव में मदद करने तक अपनी ऊर्जा व्यय करता है और उसे उम्मीद की एक पतली-सी लकीर दिख जाती है। 'टूटने के बाद' समकालीन पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों का प्रामाणिक चित्रण है। संजय कुन्दन ने अपनी विशिष्ट भाषा शैली में आधुनिकता के अनिवार्य परिणामों को इस उपन्यास में कुशलतापूर्वक चित्रित किया है।
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