शिल्प और समाज - समकालीनता और साहित्य की बहुवस्तुस्पर्शी परिधि में ऐसे अनेक मूलगामी मुद्दे और बहसें शामिल रही हैं जिन पर विगत पूरी शताब्दी में विचार किया जाता रहा है। समकालीनता को अक्सर जिस सँकरे देशकाल में सीमित और परिभाषित कर देखा जाता रहा है, अजय तिवारी 'शिल्प और समाज' के आयतन में उसे एक अलग और कालव्यापी आयाम देते हैं। साहित्य स्वप्न और गति से लेकर लोकतन्त्र, जनसमाज, साहित्य की समकालीनता व प्रयोजनीयता और साहित्य व बाज़ार के समय के साथ उन्होंने साहित्य के विराट और उदात्त को पहचानने का यत्न किया है। कविता सदैव एक बेहतर दुनिया का सपना देखती आयी है, यह आलोचक की आँखों से ओझल नहीं है। किन्तु समग्रतः वह शिल्प और रचना के रिश्ते की तलाश के लिए अनुभव- अनुभूति-भाषा-रूप-वस्तु-अन्तर्वस्तु-शैली और कला के पारस्परिक अन्तर्सम्बन्धों की पड़ताल करता है। अजय तिवारी ने 'शिल्प और समाज' में यही किया है। अजय तिवारी ने साहित्य में आगत अस्मितवादी विमर्शों और मुद्दों के आलोक में सौन्दर्य और शिल्प के मापदण्डों की विवेचना की है। उत्तर सोवियत विश्व में पूँजी और साम्राज्यवाद के प्रति खुले और बेझिझक समर्थन के इस दौर में उन्होंने युवा, दलित, स्त्री, लोक और अल्पसंख्यकों के प्रति साहित्य और कला रूपों में शिल्प और वस्तु के बनते व परिवर्तित होते स्वरूप की चर्चा की है। 'समकालीनता और साहित्य' तथा 'स्मृति में बसा राष्ट्र' दो खण्डों में उपनिबद्ध इस पुस्तक की आन्तरिक संरचना में एक ऐसी लय और संहति है जिससे गुज़रते हुए न केवल हिन्दी साहित्य की बल्कि एकध्रुवीय होते विश्व की आन्तरिक जटिलताओं का परिचय भी मिल जाता है। अपने वैचारिक आग्रहों को न छुपाते हुए यहाँ तिवारी ने वाम आन्दोलन में आती पस्ती के प्रति विक्षोम भी व्यक्ति किया है। अजय तिवारी ऐसे आलोचकों में हैं जिन्होंने सत्ता प्रतिष्ठानों को मानवीय नियति का उद्धारक मानने के किसी भी संगठित-असंगठित प्रत्यनों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी है और यह जताया है कि किसी भी समय में साहित्य ही सबसे बड़ी ताक़त रहा है और आज भी वही सत्ता का अपरिहार्य प्रतिपक्ष है।—ओम निश्चल
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