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शहर बंद है - जब हमारे जीवन के प्रायः हर क्षेत्र में अनेक प्रकार की विद्रूपताएँ, मुखौटापन और हद दर्जे की बेईमानी के दर्शन हो रहे हों, दूसरे शब्दों में, जब सब ओर से एक आईने को धूल-धूसरित करने का षड्यन्त्र चल रहा हो और बदरंग शक्ल-ओ-सूरत को ज़िन्दगी की सही तस्वीर बताकर प्रचार-प्रसार किया जा रहा हो तो स्वच्छ एवं सरल जीवन जीने की चाह रखने वालों को अन्दर ही अन्दर एक तिलमिलाहट, एक बेचैनी होगी ही—सच को न समझ पाने से, या फिर समझकर अनजान बने रहने की विवशता से। यही तिलमिलाहट और बेचैनी किसी संवेदनशील रचनाकार को क़लम उठाने को सहज ही बाध्य कर देती है। नयी पीढ़ी के सशक्त व्यंग्यकार अश्विनी कुमार दुबे ने इन रचनाओं के माध्यम से जीवन की ऐसी ही अनेक विद्रूपताओं को चित्रित करने का साहस किया है। संग्रह की कुछ रचनाएँ हितोपदेश की कथा-शैली में भी हैं, जिनके माध्यम से श्री दुबे ने हिन्दी व्यंग्य-विधा को एक नया आयाम दिया है। तमाम कृत्रिमताओं के बावजूद सत्य की तलाश करने के यदि थोड़े भी इच्छुक आप हैं तो इस संग्रह की रचनाएँ आपको एक अलग तरह का अनुभव करायेंगी।
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