निर्मल वर्मा और उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श - निर्मल वर्मा के सृजन और चिन्तन पर केन्द्रित यह पुस्तक वरिष्ठ आलोचक कृष्णदत्त पालीवाल के पिछले चार-पाँच वर्षों के दौरान लिखे गये लेखों का संग्रह है। निर्मल वर्मा के सृजन-चिन्तन के 'पाठ' पर 'विमर्श' करना, मनोभूमि में उठते जटिल सन्दर्भों को सुलझाना उतना कठिन नहीं है जितना कि उनका सामना करना। विचारधारा की ग़ुलामी में जकड़े आलोचकों ने निर्मल वर्मा पर मनमाने, निरर्थक आरोप गढ़-गढ़ कर लगाये हैं। उन्हें निर्मल वर्मा की भारतीयता छाती में खूँटे की तरह गड़ती रही है। वे उन्हें बाबावादी चिन्तक कह कर घेरने का हौसला दिखाते रहे हैं। आज न 'थियरी' रही है न 'विचारधाराएँ'। आलोचना के सामने केवल रचना है। विमर्श-विश्लेषक, आलोचक पूरे पाठक-मन से रचना से संवाद कर रहा है और पाठकवादी सृजनात्मक आलोचना का क्षेत्र विस्तृत हो रहा है। जागरूक सहृदयों, आस्वादकों को इन लेखों में आलोचना कर्म का यही रूप मिलेगा। 'निर्मल वर्मा और उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श' कालजयी रचनाकार निर्मल वर्मा की रचना-भूमि के खनिजों, अन्तःजल और विस्तृतियों का समसामयिक सन्दर्भों में 'पाठ' करने का एक महत् अनुष्ठान है। यह पुस्तक निर्मल वर्मा के व्यक्तित्व की रचावट और बनावट का ऐसा 'भारतीय पाठ' तैयार करती है जिसकी अबतक आलोचना में सिर्फ़ अनदेखी ही की गयी। निर्मल की रचनाओं पर आधारित यह 'विमर्श' आलोचना के मानदण्डों को भी पुनः परिभाषित और प्रतिष्ठित करेगा, ऐसा विश्वास है।
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