क़लम ज़िन्दा रहेगा - आलोक यादव ने बड़ी सुरअत से अदबी और शेअरी हलक़ों में अपनी शनाख़्त बनायी है। इसका एक सबब शायरी के तईं उनकी हमा-वक़्ती वाबस्तगी और मश्क़े-सुख़न है। उनके कलाम को देखकर दो बातें ज़ेह्न में आती हैं। पहले तो ये कि वो अपने कलाम को मंज़रे-आम पर लाते वक़्त बड़े एहतियात से काम लेते हैं और दूसरे ये कि वो शेअर को वजूद में लाने से पहले ज़ेहनो-एहसास की भट्ठी में पकाने की सई करते हैं। उनकी शेअरी कायनात रोज़मर्रा अलफ़ाज़ो-तराकीब के साँचे में आम इन्सानी एहसासातो-अफ़्कार के साथ मसाइले-हयात और मुआशरती ना-हमवारियों को ब-हुस्नों-ख़ूबी ढाल देना है। रिवायती तर्ज़ से जुदा, मुआसिर ग़ज़ल ग़मे-हयात और मुआसिर हालातो-वाक़ियात का आईना भी है, और इस मजमुए की ग़ज़लों में भी असरी हिस्सियत का इज़हार फ़नकाराना अन्दाज़ में जा-बजा मिल जाता है। उम्मीद है मौसूफ़ का शेअरी सफ़र इसी जोशो-जौक़ के साथ रवाँ-दवाँ रहेगा और इसकी इशाअत के बाद अहले-ज़ौक़ इसकी पज़ीराई करेंगे। —प्रो. अख़लाक़ 'आहन' जे.एन.यू., दिल्ली
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