Alok Yadav

आलोक यादव पेशे से एक सरकारी अधिकारी हैं। वे तार्किक बुद्धि और भावुक हृदय रखते हैं जो उन्हें एक अनोखा शायर बनाते हैं। वे जब कल्पना की उड़ान भरते हैं तब भी अपने पाँव ज़मीन पर टिका कर रखते हैं। उनकी शायरी में जीवन की विडम्बनाएँ हैं तो प्रेम के विविध रंग भी हैं। बक़ौल फ़रहत एहसास 'आलोक के जीवन में शायरी अफ़सरी से पहले आयी और फिर आती चली गयी।' कायमगंज ज़िला फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश में अपने ननिहाल में 30 जुलाई, 1967 को जन्मे आलोक की परवरिश ज़िला मुख्यालय फतेहगढ़ में हुई। केन्द्रीय विद्यालय, फतेहगढ़ में स्कूली शिक्षा पूरी की। लखनऊ विश्वविद्यालय से बी.एससी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.बी.ए. करने के बाद निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कई नौकरी बदलते हुए 1998 में संघ लोक सेवा आयोग से चयन उपरान्त कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रम मन्त्रालय, भारत सरकार में सहायक भविष्य निधि आयुक्त के पद पर नियुक्त हुए और वर्तमान में दिल्ली में क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त (प्रथम) के पद पर कार्यरत हैं। कविता का शौक़ स्कूल में लगा। लखनऊ में आकाशवाणी और अनेक पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े। कविता के अलावा कहानी और लेख भी लिखे। यही क्रम इलाहाबाद में भी चलता रहा। जश्न-ए-अदब के द्वारा 2021 में 'पोएट ऑफ़ द ईयर' के सम्मान से सम्मानित किया गया। इससे पूर्व अनेक सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक सम्मान प्रदान किये गय शायरी की नहीं जाती, हो जाती है। करने और होने में ज़मीन और आसमान का फ़र्क़ है। आलोक यादव की शायरी ज़मीन से जुड़ी है पर इसमें आसमान छूने की कोशिश पायी जाती है। यह सच्चाई के सुर भरे लम्हे हैं जो अपनी कैफ़ियत में महव रहते हैं। वो मस्त हैं और कोई भारी रूहानी जामा भी नहीं है। वो हुस्न को उस माशूक़ के इन्तज़ार में महव पाते हैं जिसका मीज़ान रूह की उन मंज़िलों में पाया जाता है जो क़ायम भी हैं और फ़ानी भी हैं। यह मीज़ान इनकी आदमीयत और इन्सानियत की दलील है। इस सन्तुलन के बिगड़ने में इन्हें प्रलय के आसार नज़र आते हैं। वो अपने नाज़ुक और सादा-लौह अन्दाज़ से लम्हों के तसलसुल को वज्ह और नतीजे के ज़ेरो-बम से जोड़े रहते हैं। एक आईने की सूरत जिसमें बयक-वक़्त अच्छा और बुरा दोनों बख़ूबी अयाँ हो। वो इत्मीनान के साथ एक मासूम कृष्ण की उँगली थामे बयाबानों में गश्त लगाते पाये जाते हैं, जैसे कोई मस्तानी नदी अपने अनंत सफ़र में खोयी हुई रहती है। वे कहते हैं ज़माने को चारों धामों से देखो। नदी के इस तरफ़ होते हुए उस तरफ़ से देखो और जो नज़र आये दुनिया को पेश कर दो इससे पहले कि वह जम जाये। जैसे नदी के पानी को हम नदी को लौटाते हैं और इसी नदी में इसी पानी में अपनी अना को विसर्जित कर दो और ख़ुद के आईने में देखो अपने दिल की बरहमी। उनकी शायरी दर्द के साथ जीना सिखाती है। दर्द को सराहना सिखाती है। आलोक ने अपनी शायरी के पसे-पर्दा इक जीने की अदा इख़्तियार की है जो बहुत सादा और बहुत रोचक है। —मुज़फ़्फ़र अली फ़िल्म निर्माता-निर्देशक-लेखक

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