जोगवा - रूढी-परम्पराओं की शिकार यानी देवदासी इसी रूढी-परम्परा का एक और शिकार यानी जोगता! देवी माँ के नाम अर्पित किये गये न जाने कितने जोगते पाये जाते हैं। इनका जीवन देवदासी से भी भयावह...! देवदासी झुलवा रचा सकती है, किसी आदमी की रख़ैल बनकर रह सकती है, मर जाये, तो उसके लिए लोग जमा हो जाते हैं, किसी की मेंड पर जगह मिल जाती है, मगर जोगते की टिकटी के लिए आदमी जुटाना बड़ा मुश्किल... उसका स्पर्श भी बिच्छू के डंक जैसा... उसकी किस्मत में है बस अँधेरा...वह भी आम पुरुष जैसा होता है; मगर रूढी-परम्परा के बोझ तले उसे सबकुछ गँवाना पड़ता है और यही इस उपन्यास का विषय है। उपन्यास का नायक अपना दर्द साझा करते हुए कहता है, मुझे भगवान के नाम पर छोड़ा गया, तब सबकुछ था। बिल्कुल आपके जैसा... मगर भगवान के बोझ ने कुतरकर खा डाला और मेरे भीतर का सबकुछ कब ख़त्म हो गया, मैं ख़ुद नहीं जान सका...हर जोगते का यही हाल है। कहने से किसी को यक़ीन नहीं होता... और दिखा भी नहीं सकते... हमारा सबकुछ चीथड़े जैसा...! लेखक ने इसी समस्या को बड़ी ताक़त साथ इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है। जोगते की ज़िन्दगी के साथ-साथ चौंडकिया, मेले की जोगतिनें आदि की एक नयी दुनिया ही उपन्यास के ज़रिये साकार हुई है। उपन्यास पाठक को सुन्न कर देता है। सोचने पर विवश करता है और यही इस उपन्यास की सफलता है।
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