जगदीपजी की उत्तरकथा - राजेन्द्र लहरिया का उपन्यास 'जगदीपजी की उत्तरकथा' हमारे समय की एक मार्मिक कथा है। जगदीपजी गृहस्थी को आगे बढ़ाते हुए लगातार खटते रहते हैं। रिश्तों की किताब में जगदीपजी के इस संघर्ष और त्याग पर कोई पन्ना अलग से नहीं जुड़ता। नाक की सीध में बढ़ने को ही प्रगति मानने वाले अपने बेटे दिवाकर से जगदीपजी कहते हैं, "क्या मुझमें और किसी अजनबी में तुम्हारे लिए कोई फ़र्क़ ही नहीं होगा?" ...विडम्बना यह कि अपनी उत्तरकथा में जगदीपजी अजनबी बनकर रह जाते हैं। पत्नी और बच्चों के मन में 'सुख' की जो परिभाषा है, वह जगदीपजी के लिए अजानी है। ...एक दिन जगदीपजी के सारे जीवन संघर्ष को धकिया कर दिवाकर छोटे भाई शुभंकर और माँ के साथ नयी जगह बसने चला जाता है। "जगदीपजी देखते रह गये थे— अकेले, अवाक्।" एक ईमानदार, संवेदनशील और सिद्धान्तप्रिय आदमी का अकेला और अवाक् रह जाना हमारे समय की एक विडम्बना है, जिसे राजेन्द्र लहरिया ने ‘जगदीपजी की उत्तरकथा' में समर्थ भाषा के द्वारा व्यंजित किया है। बेहद पठनीय उपन्यास।
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