फिर वही सवाल - युवा लेखक दिनेश कर्नाटक का यह पहला उपन्यास है। वस्तुतः यह अपनी ज़मीन से बिछुड़ने को अभिशप्त एक नौजवान की कथा है। अपनी और अपनों की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने की जद्दोजहद में उलझे नौजवान के जगह-जगह जाने, जीवन को देखने, उससे जूझने की कथा है। जब वह गाँव में होता है तो उसे शहर में सम्भावनाएँ नज़र आती हैं, और जब वह शहर में होता है तो उसे गाँव पुकारने लगता है। पेड़-पौधों की तरह मनुष्य की भी जड़ें होती हैं। पेड़-पौधों की तरह आदमी भी जिस हवा, पानी मिट्टी, बोली-बानी, गीतों, रीति-रिवाज़ों, लोगों के बीच जनमा होता है, उनसे दूर होकर कुम्हलाने लगता है। पहाड़ सदा से लोगों को आकर्षित करता रहा है। उसके पास ऊँचाई है, शान्ति है, सपने हैं, सुन्दरता है; पर इन सबसे पेट नहीं भरता। यहाँ न खेती लायक ज़मीन है, न व्यापार और न ही नौकरी। फलतः युवाओं को निकटवर्ती महानगरों में रोज़गार की गुंजाइशें तलाशनी पड़ती हैं। इस जद्दोजहद में पहाड़ पीछे छूट जाता है। गाँव पगडंडियाँ और गाड़-गधेरे सूने होते चले जाते हैं। प्रवासियों के ज़ेहन में उनका पहाड़ किसी पुराने सपने की तरह, सोते-जागते, स्मृतियों में मँडराता रहता है। दिनेश कर्नाटक ने पहाड़ की तलछटी में बसी तमाम त्रासदियों-विरूपताओं को इस उपन्यास में अनुपम कथा-कौशल के साथ उकेरा है। कुमाऊँनी भाषा का ज़ायका यहाँ मौजूद है। स्वागतयोग्य उपन्यास।
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