ऐन्द्रिकता और मुक्तिबोध - "ईमान का डण्डा है,/ बुद्धि का बल्लम है,/ अभय की गेती है/ हृदय की तगारी है— तसला है/ नये-नये बनाने के लिए भवन/ आत्मा के, मनुष्य के/ हृदय की तगारी में ढोते हैं हम लोग/ जीवन की गीली और/ महकती हुई मिट्टी को।" —कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं "मैं तो वस्तुओं को टटोलना चाहता हूँ, और उन्हें वैसी ही रखना चाहता हूँ, जैसी कि वे मेरे हाथों को लग रही हैं। ना, आप आँख से मत देखिए, पर आपकी स्पर्शानुभूति वाली उँगलियों से टटोलिए। सम्भव है, वे छिद जायें। पर इससे आपको नुक़सान नहीं होने का। अन्धकार में यही मजा है। अन्धकार में कोई द्रौपदी अपनी साड़ी का अंचल फाड़कर आपके घाव को पट्टी नहीं बाँधेगी। आपकी उँगलियों से रक्त बहता जायेगा, और आपका भार भी हल्का होता जायेगा, और आप वस्तु को पहचान लेंगे। आप उसके रूप को देख न सकेंगे, लेकिन उसकी आत्मा आपकी गीली उँगलियों को मिल जायेगी। अन्धकार में इतना पा लेना क्या कम है?" —एक साहित्यिक की डायरी "अजीब पेड़ है। ...पेड़ क्या है, लगभग ढूँठ है। उसकी शाखाएँ काट डाली गयी हैं। लेकिन, कटी हुई बाँहों वाले उस पेड़ में से नयी डालें निकलकर हवा में खेल रही हैं।... (शायद यह अच्छाई का पेड़ है) इसलिए कि एक दिन शाम की मोतिया गुलाबी आभा में मैंने एक युवक-युवती को इस पेड़ के तले ऊँची उठी हुई जड़ पर आराम से बैठे हुए पाया था। सम्भवतः, वे अपने अत्यन्त आत्मीय क्षणों में डूबे हुए थे। ... यह अच्छाई का पेड़ छाया प्रदान नहीं कर सकता, आश्रय प्रदान नहीं कर सकता, (क्योंकि वह जगह-जगह काटा गया है) वह तो कटी शाखाओं की दूरियों और अन्तरालों में से केवल तीव्र और कष्टप्रद प्रकाश को ही मार्ग दे सकता है।" —पक्षी और दीमक
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