दिन ज्यों पहाड़ के - काव्य में प्राय: सपाट बयानी और तल्ख़ प्रतिक्रियाओं में इस परिदृश्य के अनेकशः रूप देखे गये है। किन्तु हिन्दी नवगीत-कविता में लोक संवेदित शब्दावली नये-नये बिम्ब, प्रतीक छोटे-छोटे शब्द पदों में अर्थ की सघनता और छवियाँ लोकपरिवेश को रेश-रेशे में जिये लोकमन की गहरी भावप्रवण-विचारानुभूति की रचनात्मकता, अनूप अशेष के रचाव का अपना वैशिष्ट्य है। 'दिन ज्यों पहाड़ के' में भारतीय जातीय लोक-चेतना और कथित वैश्विकता की अदृश्य-मारकता, व्यवस्था की नित नयी पररक्तजीविकता अपने अलग प्रतीकात्मक रूप में अभिव्यक्त हुई है। इस संग्रह की नवगीत-कविताओं के जातीय संस्करों ने न सिर्फ़ उसे अपनी ज़मीन और जड़ों से जोड़े रखा है बल्कि वह काव्य-शक्ति भी प्राप्त की जिसके अभाव में कोई भी रचना संकुचित, सीमाबद्ध दृष्टि का शिकार होकर असमय ही काल का ग्रास बन जाती है। अनूप अशेष की नवगीत-कविताओं की लोक संवेदना मनुष्यगत संवेदना है। इन नवगीतों का लोक कोई एक विशेष अंचल नहीं, सांस्कृतिक रूप से भारतीय जीवन अंग है। ये नवगीत-कविताएँ अदिम-विम्बों की नयी सृष्टि भी करती है। लोक-लय की इनकी तलाश मनुष्य की सहज-चेतना की तलाश है। अनूप अशेष सर्वसाधारण के जीवन और संघर्ष से अपनी नवगीत-कविता की सामाजिकता निर्धारित करते हैं। चार दशकों से अधिक कालावधि को समेटे कवि अनूप अशेष के रचना संसार से गुज़रना अपने भाव अहसास और विचार-उत्ताप का उसी तरह साक्षात करना है।—डॉ. सत्येन्द्र शर्मा
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