धूपछाँही दिनकर - 'धूपछाँही दिनकर' राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' के सुधी अध्येता डॉ. शंभु नाथ की एक महत्त्वपूर्ण समालोचनात्मक कृति है। डॉ. शंभु नाथ इस तथ्य को अत्यन्त प्रामाणिकता से विश्लेषित करते हैं कि दिनकर का काव्य सही अर्थों में परम्परा और आधुनिकता के बीच एक सर्जनात्मक सेतु बनाता है। उनके काव्य में ऐसे अनेक सर्जनामूलक अन्तर्विरोध हैं जो इसे एक निजी वैशिष्ट्य प्रदान करते हैं ये रचनात्मक अन्तर्विरोध अन्ततः धूप-छाँह में अर्थापित होते और घुलते दीख पड़ते हैं। दिनकर का यही धूप-छाँही काव्य एक चुनौती की तरह डॉ. शंभु नाथ के सम्मुख उपस्थित हुआ है। इस चुनौती का सामना करते हुए लेखक ने कई ज़रूरी प्रश्न रेखांकित किये हैं। क्या राष्ट्रीयता दिनकर के कवि-मानस की सहज प्रवृत्ति है अथवा किन्हीं दबावों से वह उनकी रचनाधर्मिता पर आरोपित हुई? क्या उनका राष्ट्रीय काव्य-परम्परा से प्रेरित होकर स्थिर है अथवा अपने परिवेश को आत्मसात करने से वह विकसनशील अथवा परिवर्तनमूलक है? राष्ट्रीयता उनकी दृष्टि में मूल्य है अथवा युगसापेक्ष धर्म? क्या उनकी रागात्मक दृष्टि को विराग भाव खण्डित तो नहीं करता है? क्या उनके कमनीय सौन्दर्यबोध को पौरुष का चट्टानीपन कहीं प्रभावित तो नहीं करता है? ज़ाहिर है, ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर 'धूपछाँही दिनकर' में तलाशे गये हैं। दिनकर का काव्य निश्चित रूप से 'मर्त्य मानव की विजय का तूर्य' है। इस काव्य की ध्वनियों-अन्तर्ध्वनियों को सुनते-गुनते हुए डॉ. शंभु नाथ ने एक सहृदय आलोचक की दृष्टि से उनका मूल्यांकन किया है। दिनकर के जीवनानुभव और काव्यानुभव पर यह पुस्तक एक नया प्रकाश डालती है। 'धूपछाँही दिनकर' वस्तुतः शौर्य और सौन्दर्य के रचनात्मक तटों के बीच प्रवाहित रसवन्ती के अवगाहन का विरल उपक्रम है।
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