छुट्टी के दिन का कोरस - 'छुट्टी के दिन का कोरस' कथाकार और इतिहासवेत्ता प्रियंवद का तीसरा उपन्यास है। हिन्दी कथा साहित्य में प्रियंवद अपने विशिष्ट सरोकारों और अनूठे शिल्प के लिए सुपरिचित हैं। वे व्यतीत व वर्तमान की सरल वक्र रेखाओं, भास्वर-धूसर रंगों, दृष्टिगत दुर्लभ वास्तविकताओं तथा स्वीकृत विवादित निष्पत्तियों के रचनात्मक कायाकल्प से जिन कथा बिम्बों को मूर्तिमान करते हैं वे पाठक को अवान्तर\समान्तर दुनिया में ले जाते हैं। 'छुट्टी के दिन का कोरस' विवान (विन्सेंट डगलस) के विचित्र जीवन का महाकाव्यात्मक आख्यान है। यह गाथा 1947 की ऐतिहासिक तारीख़ के दोनों ओर फैली है। विवान स्मृतियों का सहचर है। अजीब-सी दिनचर्या में छुट्टी का दिन 'मायावी वास्तविकताओं और स्मृतियों में बसे निष्कवच यथार्थ का दिन होता था।' इंग्लैंड के पुराने ज़मींदार ख़ानदान का वारिस विन्सेंट डगलस भारत में जिस अप्रत्याशित जीवन से साक्षात्कार करता है, उसका अत्यन्त रोचक वर्णन प्रियंवद ने किया है। इतिहास में ठहर गये साक्ष्यों/प्रसंगों/व्यक्तियों/विमर्शों की अन्तरंग उपस्थिति से 'छुट्टी के दिन का कोरस' अविस्मरणीय बन गया है। एक भिन्न अर्थ में यह उपन्यास सम्बन्धों, आसक्तियों, निर्वेदजन्य स्थितियों और जीवन के अगाध का कोरस भी है। ग़ालिब फिर-फिर उपन्यास में आते हैं और नयी व्यंजना पैदा करते हैं। दुःस्वप्नों से उबरकर 'आसमान के कोने से सुबह की पहली किरन' के उतरने तक रचना की ऊर्जा का विस्तार है। 'छुट्टी के दिन का कोरस' संश्लिष्ट प्रकृति का बेजोड़ उपन्यास है, ऐसा पाठक अनुभव करेंगे। हिन्दी के औपन्यासिक परिदृश्य में इसकी रचनात्मक आभा अलग से दिखेगी, ऐसा विश्वास है। -सुशील सिद्धार्थ
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