बीसवीं सदी को दो अर्धशतकों में विभाजित करना समीचीन होगा। इसका पूर्वार्ध परतन्त्रताविरोधी एहसास से ओतप्रोत है तो उत्तरार्ध स्वतन्त्रता और जन आन्दोलनों से प्रभावित है। इस सम्पूर्ण सदी का दलित परिप्रेक्ष्य में अन्वय लगाने पर यही कहना होगा कि यह महान सदी थी। क्योंकि इस सदी ने दलितों को आम्बेडकर के विचार और प्रेरणा दी है। बाबासाहब आम्बेडकर द्वारा दलितों की मुक्ति हेतु छेड़ी जंग बीसवीं सदी का प्राण है। इस सदी का आम्बेडकरी आन्दोलन और विचार आगे की सदियों के लिए पथप्रदर्शक है। पूर्वार्ध अर्थात् प्रथम अर्धसदी का आन्दोलन हम हिन्दू हैं, हमें अन्य हिन्दुओं की तरह समान हक और अधिकार चाहिए इस विचार से प्रेरित था तो दूसरी अर्धसदी का दलित आन्दोलन हिन्दू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म का अनुसरण करनेवाला था। प्रथम अर्धसदी का महाड चवदार तालाब सत्याग्रह और नासिक के कालाराम मन्दिर प्रवेश का सत्याग्रह अभूतपूर्व है तो दूसरी अर्धसदी में दीक्षाभूमि पर हुआ धर्मान्तर और मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नामान्तर यह महान घटनाएँ हैं। पूरी सदी पर बाबासाहब आम्बेडकर का प्रभाव पाया जाता है। बाबासाहब आम्बेडकर के विचार और उनकी प्रेरणा से निर्माण विचार को समझे बगैर इस सदी की विचारशैली को नहीं समझा जा सकता। इस। काल की नब्ज पकड़ने के लिए, फुले, आम्बेडकर के। विचारों को नापने के लिए इस काल में सम्पन्न दलित साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण उपयुक्त साबित हो सकते हैं।
शरणकुमार लिंबाले (Sharankumar Limbale)
शरणकुमार लिंबाले
जन्म : 1 जून 1956
शिक्षा : एम.ए., पीएच.डी.
हिन्दी में प्रकाशित किताबें : अक्करमाशी (आत्मकथा) 1991, देवता आदमी (कहानी संग्रह) 1994, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र (समीक्षा) 2000, नरवानर (उपन्