“शिक्षा द्वारा संसार को यथावत स्वीकार कर लेने वाले मनुष्य का निर्माण निषिद्ध है। उसे तो हर क्षण अपने यत्नों से कुछ बेहतर और श्रेष्ठ बनाने वाले मनुष्य का निर्माण करना ही पड़ेगा। भारतीय संदर्भों में बड़े लंबे समय तक शिक्षा का यही स्वरूप रहा है। जब हम दुनिया भर में ज्ञान को बांटने वाले स्थान के रूप में माने जाते थे तो शिक्षा ऐसी ही थी।... जिस शिक्षा से राष्ट्र की, समाज की और इस धरती की समस्याओं का समाधान संभव नहीं है वह शिक्षा बेमानी है। हमें व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का विचार करना है। विश्व का विचार करना है और अंत में संपूर्ण ब्रह्मांड का विचार करना है। वर्तमान की शिक्षा ने तो उस स्तर तक विकास कर दिया है कि हर राष्ट्र के पास इस ब्रह्मांड को नष्ट करने की ताकत आ गयी है। जो नष्ट करने की ताकत दे, वह शिक्षा नहीं है, शिक्षा तो वह है जो सृजन की ताकत दे, निर्मिति का साहस और विवेक दे जिससे व्यक्ति बाह्य संसार के साथ सुसंगति बनाते हुए जीवन का स्वर साध सके....."
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