दलित ब्राह्मण मराठी और हिन्दी के सारे दलित लेखन को गुस्ताख़ी का साहित्य कहा जा सकता है जिसका प्रमुख स्वर है ग़ुस्सा या आक्रोश : यह आक्रोश जहाँ एक ओर सुवर्णों की व्यवस्था को लेकर है तो दूसरी ओर अपनी स्थिति, नियति और लाचारी को लेकर। वह आरोपपत्र भी है और माँग पत्र भी। पहले यह सिर्फ ऐसी अपील होती थी जिसमें अपनी दयनीयता का बखान और मानवीय व्यवहार की याचना की जाती थी। ग़ैर- दलितों द्वारा दलितों पर लिखा गया सारा साहित्य लगभग ऐसे ही याचना-पत्रों का संकलन है जहाँ उनकी कारुणिक अवस्थाओं के हवाले देकर सांस्कृतिक अपराधों के लिए सज़ा में कमी या क्षमा की प्रार्थना की गई है। उदार और विद्वान जज फ़ैसला देते हैं कि यह सच है कि अपराधी ने लाचार होकर अपने बचाव में आक्रमणकारी की हत्या की और दी गई स्थितियों में उसका ऐसा करना स्वाभाविक भी था, मगर अपराध तो अपराध ही है, उसे बिल्कुल माफ़ कैसे किया जा सकता है? यह वकीलों के माध्यम से न्यायाधीश के सामने प्रस्तुत किया गया मर्सी-पिटीशन था और उसमें दया के आधार पर बरी करने या सज़ा में कमी करने की अपील थी। यह वकील और जज के बीच आपसी संवाद था जिसकी भाषा 'अपराधी' पूरी तरह नहीं समझता था, क्योंकि इस भाषा को सीखने की न उसे अनुमति थी, न अवसर वह शब्दों और हाव-भाव से कुछ अनुमान लगा सकता था कि बात उसी के बारे में की जा रही है। उन्हीं फ़ैसलों को हम गैर-दलितों द्वारा लिखा गया 'हरिजन' साहित्य भी कह सकते हैं। इन फैसलों की करुणा और मानवीय सरोकारों की चारों तरफ़ प्रशंसा होती थी और उन्हें 'ऐतिहासिक फैसलों की सूची में रखा जाता था। दलित साहित्य ने इन फैसलों को अप्रासंगिक बना दिया कि यहाँ वकील, जज और प्रशंसा करनेवाले तीनों लगभग एक ही वर्ग के गैर-दलित लोग थे—दलित बाहरी व्यक्ति था और उससे अपेक्षा की जाती थी कि इस पर वह तालियाँ बजाए बहुत दिनों बिना भाषा समझे उसने बजायी भी। मगर जैसे-जैसे वह इस भाषा और मुहावरे की बारीकियाँ समझता गया, उसकी बेचैनी बढ़ती गयी। परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर तैयार किए गए इन फैसलों में उसकी अपनी आत्मा और बात कहाँ थी? हाँ, उसे अपराध-मुक्त ज़रूर कर दिया गया था या सज़ा पर सहानुभूतिपूर्वक विचार के बाद सज़ा में कमी करने का आग्रह था। बाइज़्जत बरी किए जाने में उसकी इज्जत कहाँ थी। कहाँ थी अन्य इज़्जतदारों के बीच उसकी जगह? भूतपूर्व अपराधी या अछूत होने का ठप्पा उसे दूसरों जैसा सम्मान कहाँ देता था? वह उसे सिर्फ़ अपनों के बीच होने की उदार अनुमति देता था, अपनों जैसी स्वीकृति और सम्मान नहीं। -राजेन्द्र यादव
शरणकुमार लिंबाले (Sharankumar Limbale)
शरणकुमार लिंबाले
जन्म : 1 जून 1956
शिक्षा : एम.ए., पीएच.डी.
हिन्दी में प्रकाशित किताबें : अक्करमाशी (आत्मकथा) 1991, देवता आदमी (कहानी संग्रह) 1994, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र (समीक्षा) 2000, नरवानर (उपन्