वेद कहते हैं कि अनस्तित्व में से अस्तित्व का जन्म नहीं होता। जो नहीं है, वह हो नहीं सकता। किसी का जन्म नहीं होता। कुछ उत्पन्न नहीं होता। स्रष्टा और सृष्टि दो समानान्तर रेखाएँ हैं, जिनका न कहीं आदि है न अन्त। वे दोनों रेखाएँ समानान्तर चलती हैं। ईश्वर नित्य क्रियाशील विधाता है। जिसकी शक्ति से प्रलयपयोधि में नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता रहता है। वे कुछ काल तक गतिमान रहते हैं और उसके पश्चात् विनष्ट कर दिए जाते हैं। सूर्य चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वम् अकल्पयत् । इस सूर्य और इस चन्द्रमा को भी पिछले चन्द्रमा के समान निर्मित किया गया।...तो यह जन्म लेने से पहले, इस शरीर को धारण करने से पहले भी तो कुन्ती कुछ रही होगी, कोई रही होगी। कौन थी वह ?...
जो कोई भी रही हो, जिस किसी रूप में भी रही हो, जिस किसी लोक अथवा जिस किसी शरीर में रही हो, उससे पूर्व भी तो वह किसी अन्य रूप में रही होगी। उससे पूर्व ?... उससे पूर्व ?... सबसे पूर्व ?... आज वह अपनी चेतना पर से स्मृति के आवरणों को उतार रही है तो उसे स्मरण हो आया है कि वह पाण्डवों की माता नहीं शूरसेन की पुत्री है। क्या प्रयत्न करने पर वह स्मरण कर सकती है कि उससे पहले वह कौन थी? शायद ध्यान के माध्यम से यह सम्भव हो पाए; किन्तु उससे पूर्व भी तो कुछ रही होगी, कोई रही होगी। ऐसा तो कोई समय नहीं था, जब वह थी ही नहीं। उसके रूप ही बदलते रहे। यदि वह प्रयत्न करे और अपने प्रयत्न में सफल भी हो जाए, उसे स्मरण भी आ हैं।... जाए कि इस जन्म से पहले वह कौन थी, तो भी क्या ? वह उसका मूल स्वरूप नहीं था। मूल स्वरूप, आरम्भिक स्वरूप तो वेद बताते हैं। वह आत्मा थी और परमात्मा का अंश थी। उस आत्मा पर ही तो ये सारी स्मृतियाँ लिपटती रही हैं। परत पर परत चढ़ती रही है स्मृतियों की। अब जब तक लिपटी हुई वे सारी स्मृतियाँ उधेड़ नहीं दी जाएँगी, उतारी नहीं जाएँगी, तब तक आत्मा का मूल स्वरूप कैसे प्रकट हो सकता है।
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