कांटे की बात-2
अनपढ़ बनाये रखने की साज़िश
वर्तमान स्थिति में विचार का एक सिरा राजनीति है, दूसरा संस्कृति। यह लोकतंत्र की राजनीति है—कभी अल्पसंख्यकों की, तो कभी बहुसंख्यकों की, कभी अलगाववाद की, कभी गुंडों की, तो कभी तांत्रिकों-स्वामियों की, कभी उर्दू की साम्प्रदायिक माँग की, कभी अंग्रेजीदां जहालत की, तो कभी हिन्दी के पिछड़ेपन की ।
यह राजनीति जन्म देती है एक ऐसी संस्कृति को जिसमें असहमति और विद्रोह की चेतना नहीं, सत्ता को चुनौती देने या बदलने का साहस नहीं, बल्कि हिंसा, अपराध और भ्रष्टाचार की स्वीकृति है, झूठ को जीने और मूल्यों को ध्वस्त करने का दंभ है । उसमें व्यक्ति, समाज और देश को जाहिल, मूर्ख, परतंत्र और पराश्रित बनाये रखने की साज़िश है जिससे वे न तो अपनी नियति से साक्षात्कार करें और न भविष्य को बदलने के सपने ही देखें ।
समाजवाद ऐसा ही सपना था, जिसकी मौत घोषित कर दी गई और तीसरी दुनिया को दिखाया जा रहा है पूँजीवादी 'खुले बाजार' का आदर्श अमरीकी स्वप्न ! लोकतंत्र के संकट से गुजरते हमारे देश के लिए इनमें से कौन-सा स्वप्न प्रासंगिक है - इन्हीं सवालों से जूझने की प्रक्रिया है - अनपढ़ बनाये रखने की साज़िश ।
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