संवेदना कविता की पूँजी है। उसी का विकास वस्तुतः कविता का विकास है। ‘मा निषाद प्रतिष्ठामः' से शुरू हुई यह यात्रा अनवरत गतिमान है तो इसलिए कि संवेदनाएँ कभी मरती नहीं हैं, यद्यपि जीवन-जगत् में हो रहे बदलावों, आवेगों, दबावों और जटिलताओं से उनका स्वरूप बदल जाता है। कभी उनमें क्षीणता आती है तो कभी प्रबलता। कभी हासोन्मुखता तो कभी विकसनशीलता। संयोग से जब भी ऐसा होता है कविता में एक नयापन आता है। जीवन-जगत और समय के जो केन्द्र में होता है कविता उसी को अपना वर्ण्य और प्रतिपाद्य बनाती है। उसी से उसकी दशा और दिशा निर्धारित होती हैं। संवेदन-धारा में परिवर्तन के कारण उसकी मुख्यधारा भी बदलती है। कुछ अक्षुण्ण भाव-बोध और रूप विधान शेष रह जाते हैं लेकिन अनेक आयामों का बदल जाना ही कविता के नयेपन का संकेतक है। कविता का यह नयापन वस्तुतः संवेदना का नयापन है जो स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कविता में कुछ अधिक ही गाढ़ा और चटख है। जीवन की समग्रता का बोध, मूल्यों के लिए प्रतिबद्धता और संघर्ष, घुटन-टूटन, आस्था और करुणा, परम्परा और प्रयोग, सहजता और संश्लिष्टता को कविता में सम्भव करने की कोशिश कुछ अधिक हुई है। नवता के इस परिप्रेक्ष्य में ही स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कविता के मूल्यांकनविश्लेषण का कार्य डॉ. त्रिपाठी ने इस पुस्तक में किया है।
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