सिर्फ़ जलती हैं
पिघलती क्यों नहीं हैं ये मोमबत्तियाँ ?
क्यों साइबेरिया पलता है उनके पेट में?
और क्यों तनी मुट्ठियाँ खुल जाती हैं
चतुर सौदागरों की पोटलियों जैसी ? मैंने देखा है, सुना है वह भ्रष्टाचार
जहाँ हार जाता है हर एक विचार
पूँजीवाद ! पूँजीवाद !!
अटपटा ख़याल है कि किसको, कितना धिक्कार ?
सब दर्ज़ी हैं, सब फर्ज़ हैं
मिलते ही मौक़ा छप-छपाक गिरते हैं सब
उठने के दिन को, दूर से ही करते हुए नमस्कार
सबके सब कितने लाचार ?
टपकाते लार, चाटते अचार ?
आराम- दक्ष के बन्द-कक्ष में सोचते ब्रह्माण्ड
सिर्फ़ जलती हैं
पिघलती क्यों नहीं हैं ये मोमबत्तियाँ ?
क्यों जलते नहीं हैं हाय?
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