कैदी नं. 307' यानी सुशीला टाकभीरे और सुधीर शर्मा का पत्र - संवाद। आप चाहें तो इस पत्र संवाद को एक लेखिका और पाठक के बीच विकसित होते हुए आत्मीय सम्बन्धों के दस्तावेज़ के रूप में भी पढ़ सकते हैं। गोवा के केन्द्रीय कारागार का एक कैदी, जो कई संगीन अपराधों के जुर्म में वहाँ आया है, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लेखकों-रचनाकारों से सम्पर्क बनाता है। इसी क्रम में जब वह सुशीला टाकभौरे से संवाद शुरू करता है तो दोनों ओर से पत्रों का सिलसिला चल पड़ता है। लेखिका और उसकी रचनाओं के बारे में सुधीर शर्मा की जिज्ञासा बढ़ती जाती है, पत्र-संवाद प्रगाढ़ होता जाता है। और अन्ततः इस किताब की शक्ल में सामने आता है।
'कैदी न. 307' में एक क़ैदी और एक पाठक के रूप में सुधीर शर्मा की उलझन, समस्याओं, कशमकश, द्वन्द्व या कहें कि उसकी पूरी अन्तर्यात्रा का साक्षात्कार हो जाता है । इस किताब में क़ैदी से पाठक बनने की पूरी प्रक्रिया बहुत ही सहज रूप से उभरकर सामने आ गयी है। जेल में रहते हुए एक आदमी कैसे धीरे-धीरे अपने क़ैदी जीवन की केंचुल उतारता है और पाठकीय जीवन की शुरुआत करता है, कैसे वह क्रमशः अपने पुराने चरित्र को छोड़कर एक नये चरित्र के रूप में विकसित होता है या कैसे एक नये रूप में उसका पुनर्जन्म होता है इस सबका सहज बोध ही 'कैदी न. 307' की रचनात्मक उपलब्धि है। सुशीला टाकभौरे की लेखकीय दुनिया से रूबरू होने के सिलसिले में सुधीर शर्मा एक संवेदनशील पाठक के रूप में नैतिक और मानसिक उन्नति करता है और सकारात्मक जीवन की ओर बढ़ता है। शुरू से आखिर तक सुधीर शर्मा के इस वैयक्तिक कायान्तरण में लेखिका सुशीला टाकभौरे एक प्रेरणा और प्रबोधन बनकर हमेशा उपस्थित रहती हैं और एक कैदी की जीवनाकांक्षाओं को 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के उज्ज्वल और पावन-पूत सन्देश की ओर मोड़ देती हैं।
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