पद्मजा घोरपड़े की कविताओं की विविध और बहुरंगी दुनिया में प्रवेश करने के लिए सबसे पहले उनकी इस प्रतिश्रुति को ध्यान में रखना चाहिए कि 'जहाँ शब्दों की सीमाएँ समाप्त होती हैं वहीं से कविता आरम्भ होती है।' कविता को लेकर यह समझ कोई मामूली समझ नहीं है बल्कि बहुत ही मार्के की और दूरदृष्टि वाली समझ है। आज जहाँ काव्य रचना में शब्दों की स्फीति और वाग्जाल की अधिकता मिलती है वहीं पद्मजा घोरपड़े शब्दों की सीमा की बात करती हैं और इसे रचना की एक बुनियादी ज़रूरत के रूप में देखती हैं। इसे एक विरल काव्य बोध ही कहा जाएगा- अवधारणा की दृष्टि से और प्रस्थान- बिन्दु की दृष्टि से भी। यदि गहराई से देखा जाय तो 'कभी इस पार कभी उस पार' की कविताएँ इसी काव्य-बोध का निरन्तर विस्तार करती प्रतीत होती हैं।
ईसप और पंचतन्त्र की नीति कथाओं से प्रेरणा ग्रहण करते हुए, उनका एक आधुनिक संस्करण रचते हुए 'कभी इस पार कभी उस पार' में सूरज, पहाड़, नदी, सागर, साहिल, सावन और हवाओं पर लिखी कविताएँ भी मिलेंगी। इन कविताओं में नागफनी की झाड़ियाँ हैं, सोते हुए जंगल हैं, नींद ओढ़े हुए अफ़साने और ऊँघते हुए मकान भी हैं, यहाँ बबूल उगाते खेत और सूखी आँखों वाले कुएँ हैं तो फुसफुसाती हुई हवाएँ और आँसुओं के कफ़न में लिपटी हुई खुशियाँ भी हैं और इन सबके बीच जीने की जद्दोजेहद करता हुआ एक अदना सा अंकुर भी है जिसमें अपने चारों ओर की विषम परिस्थितियों से भी जीवन रस को खींच लेने का माद्दा है, अपने अस्तित्व को पहचानने की कोशिश और कशिश है। और सबसे बड़ी बात यह कि इन कविताओं में समय का एक बेहद तीखा बोध भी है, उसकी नब्ज पकड़कर उसके पार और उससे परे जाने का एक दर्शन भी है।
संग्रह की कविताओं में मानवीय अनुभवों और उनके सूक्ष्मतम निहितार्थो के साथ-साथ मानव और प्राकृतिक दुनिया के अलग-अलग पड़ावों के मार्मिक अनुभवों-प्रसंगों को उभारने वाले बिम्ब हैं। मानवीय सरोकारों के निरन्तर फैलते हुए क्षितिज को रेखांकित करती हुई यह दुहरी बिम्ब-रचना उनकी कविताओं की एक दुर्लभ विशेषता बन गयी है। कठोर अनुभव और सच्चाइयों से लबरेज ये बिम्ब कविता में धीरे-धीरे ढलते और पिघलते हुए एक आन्तरिक संगीत की सृष्टि करते हैं। कविताओं में निहित प्रश्नाकुलता, संवादधर्मिता, आश्चर्य-विस्मय और व्यंग्य की ख़ूबियाँ उन्हें बार-बार पढ़ने और सोचने पर मजबूर करती हैं।
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