इतिहास, स्मृति, आकांक्षा निर्मल वर्मा का चिन्तक पक्ष उभारती है। क्या मनुष्य इतिहास के बाहर किसी और समय में रह सकता है ?रहना भी चाहे तो क्या वह स्वतन्त्र है? स्वतन्त्र हो तो भी क्या यह वांछनीय होगा ? क्या यह मनुष्य की उस छवि और अवधारणा का ही अन्त नहीं होगा, जिसे वह इतिहास के चौखटे में जड़ता आया है? इतिहास बोध क्या है ? क्या वह प्रकृति की काल चेतना को खण्डित करके ही पाया जा सकता है? लेकिन उस काल चेतना से स्खलित होकर मनुष्य क्या अपनी नियति का निर्माता हो सकता है?
जिसे हम मनुष्य की चेतना का विकास कहते हैं, वहीं से आत्म विस्मृति का अन्धकार भी शुरू मनुष्य की होता है। यदि मनुष्य की पहचान उस क्षण से होती है जब उसने प्रकृति के काल बोध को खण्डित करते हुए इतिहास में अपनी जगह बनायी थी तो क्या उस प्रकृति के नियमों को नहीं माना जा सकता जिसका काल बोध अब भी उसके भीतर है।
प्रकृति के परिवर्तन चक्र में एक अपरिहार्य नियामकता है तो क्या हम इतिहास में उसी प्रकार नियामक सूत्र नहीं खोज सकते जिनके अनुसार मनुष्य समाज में परिवर्तन होते हैं ? जहाँ इन प्रश्नों को शब्द और स्मृति, कला का जोखिम, ढलान से उतरते हुए पुस्तकों में उन्होंने अलग-अलग प्रसंगों में स्पर्श किया है, वहाँ उन्हें इन तीन व्याख्यानों में एक सूत्रित समग्रता में पिरोने का प्रयास किया है।
आज जब ऐतिहासिक विचारधाराओं के संकट पर सब ओर इतना गहन और मूल स्तर पर पुनर्परीक्षण हो रहा है तब निर्मल वर्मा के यह व्याख्यान एक अतिरिक्त महत्त्व और प्रासंगिकता लेकर सामने आते हैं।
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