"स्त्री-जीवन की निजता से जुड़ी कहानियों में सामान्यीकरण की जगह विशेषीकरण आ जाता है लेकिन ज्योति की कहानियाँ इस विशेषीकरण में भी पारिवारिक-सामाजिक यथार्थ की विविधता से साक्षात्कार कराती हैं।"
-खगेन्द्र ठाकुर, वरिष्ठ आलोचक
सेक्स प्रधान एजेंडा लेखन के तहत स्त्री-विमर्श के दीप को जलाये रखने की जिद के मध्य युवा लेखिकाओं की कतार में ज्योति के सृजन का फलक कहीं अधिक अलग, विस्तृत व विविध है।
- राजेन्द्र राजन, सम्पादक, प्रगतिशील इरावती
फिर तुमने बड़े प्यार से मुझे समझाया था-जान, बातों की भी अपनी शक्ल होती है, अपनी गन्ध होती हैं, और बचपन से जो बातें मन में बैठ जाती हैं, वे अवचेतन में अपना एक खास आकार-प्रकार, रंग-रूप, गन्ध अख्तियार कर ही लेती हैं...
कोटरों में धँसी आँखें... इतनी गहरी और स्याह... कि सूरज की रोशनी भी पूरी तरह आँखों तक नहीं पहुँचती। मगर हमेशा खुली रहती हैं ये आँखें। कभी पलकें नहीं झपकतीं। कम से कम मैंने तो नहीं देखा इन्हें झपकते हुए। शायद जम गयी हैं। दहशत से ...? लेकिन नहीं... ऐसा होता तो कभी किसी ने चीख तो सुनी होती! क्या वह भी घुट गयी है... ? तो आँखों के इन कोरों से कभी तो कोई नदी की धारा ही निकली होती । शिवजी की जटा से निकली गंगा की कम से कम एक बूँद तो यहाँ तक पहुँचती ।
(पुस्तक अंश)
Log In To Add/edit Rating
You Have To Buy The Product To Give A Review