यात्राओं के प्रसंग से लिखी गयीं इन टिप्पणियों में प्रकृति और जीवन के बहुतेरे मर्म समाहित हैं। कवि-कथाकार और कला-समीक्षक प्रयाग शुक्ल के ये सभी रूप मानो इन टिप्पणियों में इकट्ठा होकर, एक नई ही प्रकार की विधा से हमें परिचित कराते हैं। पाठकों को इनमें कविता के गुण भी दिखाई पड़ेंगे, कथा की सरसता और रोचकता भी मिलेगी और ऐसी चित्रात्मकता भी कि सब कुछ ऐन आँखों के सामने ही घटित होने का एक पठनीय अनुभव हो। दैनिक 'जनसत्ता' के 'दुनिया मेरे आगे' स्तंभ में समय-समय पर प्रकाशित होने वाली इन टिप्पणियों ने एक व्यापक पाठक वर्ग की सरसता अर्जित की है, और इनके गद्य को पाठकों ने विशेष रूप से, 'गद्य के एक नए स्वाद' के रूप में देखा-परखा है। दैनंदिन जीवन की बेहद मामूली लगने वाली चीजें, दरअसल कतई मामूली नहीं होतीं, और उनकी अनदेखी करके मानो हम सुरुचि और सौंदर्य के बहुतेरे पहलुओं से वंचित रह जाएँगे - इसी तथ्य की ओर ये टिप्पणियाँ संकेत करती हैं। इनमें हवा-पानी-वनस्पतियों-फूलों के संस्मरण भी हैं, और शहरों-गलियों की मर्मभरी गूँजें भी। साहित्यिक स्मृतियों से भी ये लैस हैं और हिंदी के कई महत्त्वपूर्ण कवियों की कविता- पंक्तियों, इनमें जिस प्रकार याद की गयी है, वे बरबस की हमें एक बड़ी धरोहर से जोड़ देती हैं। इन टिप्पणियों की सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि भी अचूक है, और 'भोले का मुँह' या 'खजुराहो की आम्र मंजरियाँ' जैसी टिप्पणियाँ अपने छोटे-से कलेवर में की बहुत कुछ कह जाती हैं। इनका सच, समझा जाने वाला सच नहीं है। अचरज नहीं कि इनकी ताजगी पर हम भरोसा कर सकते हैं। अपनी विविधवर्णी छवियों में ये अनूठी हैं, और अनूठी हैं, मर्मभरी उस दृष्टि में, जो जरूरी संवेदना के साथ सक्रिय रहती हैं, और अपने आसपास को सतत् रूप से निरखती-परखती हैं। और अपने इस निरखने-परखने से 'मानवीय पक्ष' को हर बार ऊपर ले आती हैं।
आवरण: नरेश कपूरिया
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