नमक का पुतला सागर में - 'नमक का पुतला सागर में' बांग्ला के बहुचर्चित कथाकार एवं नाटककार धनंजय वैरागी के लोकप्रिय उपन्यास 'नुनेर पुतुल सागरे' का हिन्दी रूपान्तर है। प्रस्तुत कृति में वैरागी ने कलकत्ता महानगर को केन्द्र में रखकर वहाँ के जीवन के विभिन्न रूपों संक्रमण काल की सभ्यता के रूप-विरूप, परिवर्तित परिप्रेक्ष्य, विघटित मानवमूल्य और नैतिक अवमूल्यन के ऐसे मार्मिक चित्र प्रस्तुत किये हैं कि पाठक को लगने लगता है जैसे उसका संसार ही बदल गया है, महानगरीय अभिशाप की छाया पूरे परिवेश में व्याप्त हो गयी है और आदमी की साँस ताज़ी हवा के लिए व्याकुल हो उठी है। मार्गदर्शन का दायित्व सम्भालने वाले भ्रष्टाचारी नेता, गरम नारों की मशाल पर अपनी ज़बान जलाने वाले उद्देश्यहीन युवक, काले बाज़ार के बहीख़ातों को मनुष्य के रक्त से अंकित करने वाले व्यापारी, दिग्भ्रमित तथा अभावग्रस्त नारियों की खुली अनैतिक सौदेबाज़ी, गुंडों की लूट-ख़सोट, मध्यवर्ग की निष्क्रियता और ऐसी ही अनेक अनेक विसंगतियाँ उपन्यासकार की तटस्थ दृष्टि और कलात्मक शैली के सामंजस्य द्वारा अक्षरशः जीवन्त बन गयी हैं। उपन्यास का कथानायक अनादिप्रसाद, जिसकी साहित्यिक प्रतिभा ने उसे सम्मान के शिखर पर पहुँचा दिया है और अभावों की वैतरणी पार करके जो भोग के स्वर्ग में सिंहासनासीन है, अपनी पचासवीं वर्षगाँठ के अवसर पर अचानक जसे मौत की नींद से घबराकर उठ बैठता है। वह पाता है कि उसका सारा अस्तित्व असत्य और अनस्तित्व की बालू-भरी पीली भीत पर टिका है। कहाँ है सत्य? क्या है वास्तविकता और क्या है जीवन का अभिप्राय? सत्य के अन्वेषण और उससे साक्षात्कार की अविस्मरणीय कथा! अद्वितीय कृति!!
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