माटी के लाल - सामाजिक समस्याओं और विडम्बनाओं के प्रति अपने कार्य में प्रतिबद्ध राजम के रचना शिल्प की बड़ी विशेषता है। उनका समूचा-साहित्य समस्याओं में ग्रस्त अभावों से पीड़ित और सम्पन्न वर्ग में उपेक्षित समाज का जीवन्त दस्तावेज़ है और उसमें भी की कुलबुलाहट पैदा करने में इनके उपन्यासों का ख़ास योगदान रहा है। उनकी प्रस्तुत कृति 'माटी के लाल' में मिट्टी की गन्ध भी है और कीचड़-पानी में घुटनों तक सने श्रमिकों की करुण कहानी भी। श्रमिक वर्ग के कठोर श्रम और उच्च वर्ग की तीव्र उदासीनता का एक सन्तुलित परिदृश्य इस कृति को चरितार्थ करता है। 'भारतीय भाषा परिषद्', कलकत्ता तथा 'इलक्किन चिन्तनै' के पुरस्कारों से सम्मानित इस कृति की भूमिका में लेखिका की यह टिप्पणी सजीव और सारगर्भित है—"प्रकृति माँ की इच्छा है कि उसके सभी बेटे सुखी रहें, पर उसकी इच्छा को कोई नहीं समझता। अपने ही जैसे इन्सानों का आदमी स्वार्थवश शोषण करता है। माटी-कीचड़ में मेड़ पर पानी में, खेत में स्वर्ग की रचना करने वाले ये माटी के लाल अभी तक अभावों में जी रहे हैं। यही दृष्टि इस उपन्यास के जन्म का कारण है।" उपन्यास का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करने में भारतीय ज्ञानपीठ गौरव का अनुभव करता है।
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