जूनागढ़ की वैदेही - नयी सहस्राब्दी के प्रारम्भ में जब सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद के कगार पर खड़ा मानसिक तना और सन्त्रास को जीवन की नियति समझकर झेलने के लिए विवश है, तब 'जूनागढ़ की वैदेही' जैनों के बाईसवें तीर्थकर अष्टिनेमि को वाग्दत्ता प्रेमाकुल राजकुमारी राजुल शीतल, सुवासित पवन-झकोरे की भाँति व्यक्ति को समस्त दैहिक मानसिक सन्ताप से मुक्त कर अपने भीतर छिपे आनन्द के उस अनवरत स्रोत की साधना के लिए पुकार रही है, जो उसे अमरत्व के मार्ग का पार्थक बना देती है। महामानव अरिष्टनेमि से लौ लगाकर राजुल ने जीवन का वह सत्य पा लिया, जो आज की रक्त-स्नात मानवता को संजीवनी—जैसा नव जीवन प्रदान कर सकता है। 'जूनागढ़ की वैदेही' राजुल के आत्म-विकास और आत्म-सिद्धि की कथा है। अध्यात्म, दर्शन एवं भावोन्मेष की मधुर-ललित त्रिवेणी को तत्सम प्रधान शब्दावली में लिपिवद्ध कर आधुनिक कथा-साहित्य को नूतन आयाम देने वाली एक अनुपम कलाकृति। राजुल की मूक व्यथा और विराट् के साथ एकतान होने की उसकी आकुलता को मुखरित करने वाली इस रचना में मानव-जीवन सम्बन्धी अनेक मूलभूत प्रश्नों को उठाया गया है। मानव जीवन की सार्थकता किसमें है? भौतिक पदार्थों पर विजय प्राप्त करने में अथवा सत्य की आराधना में? उच्च कोटि के तत्त्व-चिन्तन-मनन को अपने में समेटे हुए भारतीय ज्ञानपीठ की नवीनतम प्रस्तुति।
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