इन्द्रियजाल - मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल में नये तौलिये से बदन पोंछते हुए मनु अपने अन्दर पिछले कई सालों मे जमा हुई नमी भी पोंछ रहा था—सुखाना होगा तन को भी, मन को भी!—माँ-बाप, लड़का-लड़की, श्लील-अश्लील, गोरा-काला... सब भूल जाओ!...शब्दों के अन्तरंग अर्थ निकालना फ़िज़ूल है। आवश्यकता भी नहीं। सब चमड़ी के थैले में ठसे हड्डियों और मांसपेशियों के बंडल हैं। बस, रक्तशिराओं और संवेदना तन्त्र के जाल में बँधे हैं— इसलिए ज़िन्दा कंकाल हैं। कंकालों से न परिचय पूछो; न उनके रूप-रंग, आकार, गन्ध या ताप से पंचेन्द्रियों को परेशान करो...समझे! देखा नहीं—किस निःस्पृहता से, निरपेक्षता से मिस...जो भी नाम हो... गर्मी के मिस (बहाने) अपनी हथेली टी-शर्ट के गले में डालकर अपना पसीना पोंछ रही थी—कैंटीन ब्वॉय एवं कैंटीन मालिक की उपस्थिति से पूरी तरह गाफ़िल... ख़ुद से, ख़ुद के अंगों से और आसपास की हर जीव-निर्जीव चीज़ से बेख़बर! बस, एक ही ख़याल कि गर्मी है, पसीना है, बदबू है...जहाँ भी हो, जैसे भी हो पोंछना है। टी शर्ट पहिने थी तो हाथों से पोंछ रही थी, सलवार कुर्ती पहिने होती तो चुन्नी से और साड़ी पहिने होती तो उसके पल्लू से पोंछ रही होती। मिस... जो सुनना था वह ऐसे सुन रही थी कि जैसे और कुछ सुनायी न दे रहा, जो देखना था वह ऐसे देख रही थी कि कुछ और नहीं दिखायी दे रहा... जो छूना था वह ऐसे छू रही थी कि हथेली को पता भी न हो कि उसके नीचे फूल या पत्थर... स्त्री है या पुरुष...
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