जैन तत्त्वविद्या
तीर्थङ्कर की देशना के कैवल्य सागर से उद्भूत प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग रूप अप्रतिम 'वेद-रत्नों' की ज्ञानाभा को श्री माघनन्दियोगीन्द्र ने देवभाषा संस्कृत में दो सौ सूत्रों में निबद्ध किया। प्रज्ञाश्रमण दिगम्बर जैन मुनि प्रमाणसागर जी ने उन अमृत-सूत्रों के हार्द को हृदयंगम किया। प्रस्तुत कृति 'जैन तत्त्वविद्या' उसकी मुखर अभिव्यक्ति है। कृति में कृतिकार के परम वैदुष्य/ज्ञानगाम्भीर्य / चिन्तन की सृजनशीलता और निर्ग्रन्थ- श्रेयस साधना का रूपायन भास्वर है। जैनागम के रत्नमयी तत्त्वों की सर्वोमुखी- विधाएँ 'जैन तत्त्वविद्या' में समाहित हो जाने से यह जैनधर्म की इनसाइक्लोपीडिया बन गई है। आरेखों, मानचित्रों, तालिकाओं एवं परिशिष्ट की समायोजना से कृति और अधिक प्रामाणिक/उपयोगी बन गई है।
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