भारतीय दर्शन में आत्मा एवं परमात्मा
आत्मा एवं परमात्मा के अस्तित्व, स्वरूप तथा कर्तृत्व- अकर्तृत्व जैसे जटिल विषय को लेकर भारतीय दर्शनों व दार्शनिकों में काफी कुछ समानता के बावजूद मतभेद रहे हैं। जैनाचार्य आत्मा और परमात्मा में घनिष्ठ सम्बन्ध मानते हैं। उनके अनुसार, आत्मज्ञान की प्राप्ति ही परमात्मस्वरूप को पा जाना है। और फिर, सर्वदुःखों से मुक्ति और स्वाधीन सुख की प्राप्ति ही तो मोक्ष है, जिसका मूल कारण आत्मतत्त्व को जान लेना ही है ! अन्य दर्शनों में भी इस विषय पर अपना अपना गम्भीर चिन्तन हुआ है।
प्रस्तुत कृति के विद्वान लेखक ने दर्शनशास्त्र के इस गूढ़ गम्भीर विषय को बहुत ही सरल-सुबोध शैली में युक्तियुक्त ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उन्होंने सात अध्यायों में भारतीय दर्शन में आत्मविद्या का बीजारोपण करते हुए आत्मा का अस्तित्व, पुनर्जन्म, आत्मा और मुक्तात्मा, सांख्य-योग-न्याय-वैशेषिक- मीमांसा - बौद्ध-चार्वाक आदि दर्शनों में उसका वैशिष्ट्य, जैन दृष्टि से उनकी तुलना, परमात्म तत्त्व या ईश्वर की अवधारणा, आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से उनकी पुनर्व्याख्या आदि अनेक विषयों को समेट लिया है। साथ ही, अनेक विद्वानों के युक्तिसंगत अभिमतों को उद्धृत करते हुए जैन दर्शन को नास्तिक दर्शन कहने / मानने जैसी संकीर्ण भावना का परिहार किया है।
भौतिक समृद्धि की चाह में आज का मानव कहीं अधिक बौद्धिक होता जा रहा है। उसे आत्मदर्शन जैसा विषय अनुपयोगी लगने लगा है। यही कारण है कि वह अपने जीवन में पहले की तुलना में अधिक समस्याओं से ग्रस्त हो गया है। अध्यात्म ही एक ऐसा साधन है जिसके माध्यम से उसे इसका समाधान मिल सकता है।
आशा है, भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति के इस महत्त्वपूर्ण विषय को समझने में यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी।
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