प्रेम पीयूष - हर वह स्थल जहाँ-जहाँ तनु संग पल गुज़ारे थे, भ्रमण करता रहा। मन तनु के तृष्णा में तृषित था। क़दम कहीं भी ठहरते न थे। मन अशान्त हुआ जा रहा था। आज अशन की भी बुभुक्षा न थी। न सर्दता का ही प्रभाव था। जब सन्ध्याप्रकाश विस्तारित होने लगा तब एक नागा सम्प्रदाय के मठ में जा घुसा और सुलगते काष्ठ के सम्मुख धूनी लगाये एक नग्न नागा के सम्मुख जा बैठा। वह नागा भी इतेष के व्यक्तित्व से झलकते अवधूत को जान लिया। उसकी दीर्घायु को देखकर सब कुछ जान लिया। कोई प्रश्न न पूछकर अपितु सम्मान भाव से देखता रहा। लेकिन इतेष एकान्त और विश्राम चाहता था। अतः उसी तम्बू के नीचे बने प्रकोष्ठ में पहुँचकर विश्राम करने लगा। अवदीर्ण अवस्था में ही सो गया। जब ब्रह्मवेला से कुछ पूर्व का पहर गुज़रने लगा तब इतेष को एक स्वप्न और उसका अहसास हुआ जैसे तनु उसके सिरहाने बैठी हुई उसे पुचकार कर जगा रही हो और कह रही हो...इतेष तुम सो रहे हो। उठो देखो। मैं आ गयी हूँ। अब तो अपने संग ले चलो। सो रहे हो। जब शरीर था तब तुम कोई-न-कोई झूठ बोलकर स्वयं से विलग रखे। लेकिन अब आत्मरूप हूँ। अब कोई झूठ बोलकर मुझे मत बहलाना। अपने संग ही ले चलना।... —इसी उपन्यास से
Log In To Add/edit Rating
You Have To Buy The Product To Give A Review