मूकमाटी - धर्म-दर्शन एवं अध्यात्म के सार को आज की भाषा एवं मुक्त छन्द की मनोरम काव्य-शैली में निबद्ध कर कविता-रचना को नया आयाम देने वाली एक अनुपम कृति। आचार्यश्री विद्यासागर जी की काव्य-प्रतिभा का यह चमत्कार है कि उन्होंने माटी जैसी निरीह, पद-दलित एवं व्यथित वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाकर उसकी मूक वेदना और मुक्ति की आकांक्षा को वाणी दी है। कुम्भकार शिल्पी ने मिट्टी की ध्रुव और भव्य सत्ता को पहचानकर, कूट-छानकर, वर्ण संकर कंकर को हटाकर उसे निर्मल मृदुता का वर्णलाभ दिया। फिर चाक पर चढ़ाकर, आवाँ में तपाकर, उसे ऐसी मंज़िल तक पहुँचाया है जहाँ वह पूजा का मंगल-घट बनकर जीवन की सार्थकता प्राप्त करती है। कर्मबद्ध आत्मा की विशुद्धि की ओर बढ़ती मंज़िलों की मुक्ति यात्रा का रूपक है यह महाकाव्य। अलंकारों की छटा, कथा-कहानी-सी रोचकता, निर्जीव माने जाने वाले पात्रों के सजीव एवं चुटीले वार्तालापों की नाटकीयता तथा शब्दों की परतों को बेधकर अध्यात्म के अर्थ की प्रतिष्ठापना यह सब कुछ सहज ही समा गया है इस कृति में, जहाँ हमें स्वयं को और मानव के भविष्य को समझने की नयी दृष्टि मिलती है और पढ़े-सुने को गुनने की नयी सूझ। प्रस्तुत है आधुनिक हिन्दी काव्य-साहित्य की इस अनुपम कृति का यह एक और नया संस्करण, अपने संशोधित रूप में।
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