तुम्हारा सुख - हिन्दी में एक नये ढंग का उपन्यास है—जितना कथा में, उससे ज़्यादा कथा कहने के शिल्प में। जिन पाठकों ने इसे पढ़ा है, वे न केवल चमत्कृत हुए हैं, बल्कि विभोर भी—कोई इसकी विषयवस्तु से, कोई इसकी भाषा से; और यह बात सभी ने स्वीकार की है कि कहानी और विश्लेषण की मिली-जुली, पर सहज और दिलचस्प भंगिमा पाठक को आमन्त्रित करती है कि वह यथार्थ को कई तरह से देखने के रचनात्मक उद्यम में ख़ुद भी शामिल हो। इसी प्रक्रिया में यह प्रश्न उठता है कि क्या यह उपन्यास सिर्फ़ प्रश्नातुर मालविका मित्र की कहानी है, जिसे बार-बार यह अहसास कराया जाता है कि स्त्री का सुन्दर होना ज़रूरी है या छलनामयी पुरुष अभिव्यक्तियों की ऐसी दुर्निवार कथा, जो अक्सर प्रेम और सहानुभूति के सुन्दर वस्त्र पहनकर स्त्री देह के आखेट पर निकलती है? इनके बीच से सचाई शायद यह है कि 'तुम्हारा सुख' स्त्रीत्व द्वारा अपनी पहचान की खोज में किये जा रहे संघर्ष की रोमांचक गाथा है— उसकी वेदना और उसके आनन्द दोनों के स्वीकार के साथ साथ ही, स्त्री-पुरुष की द्वन्द्वात्मकता के बीच हमारे समाज के अनेक महत्त्वपूर्ण पहलुओं—हमारी शिक्षा-व्यवस्था, साहित्य और पत्रकारिता की हमारी दुनिया, हमारे धार्मिक प्रतिष्ठान, और सबसे बढ़कर रोज़मर्रा का हमारा जीवन—की बेढंगियत का जो प्रखर और मार्मिक चित्रण इस उपन्यास में हुआ है, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। कहना न होगा कि राजकिशोर की इस पहली औपन्यासिक कृति का सुख शायद इस बात में ज़्यादा है कि यह चीज़ों को देखने की एक नयी दृष्टि देता है, जिसका मर्म मानवीय सहानुभूति और नैतिक प्रखरता के तनाव से लहूलुहान न होकर क्रमशः मृदु तथा उज्ज्वलतर होता जाता है। समर्पित है पाठकों को 'तुम्हारा सुख' का नया संस्करण, नयी साज-सज्जा के साथ।
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