सिरजनहार - मैथिली के महाकवि विद्यापति का जीवन साहित्य रसिकों की जिज्ञासा का केन्द्र रहा है। वरिष्ठ कथाकार उषाकिरण खान ने विद्यापति के जीवन और साहित्य को 'सिरजनहार' उपन्यास में समस्त विलक्षणताओं के साथ प्रस्तुत किया है। 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा’ की धारणा पर विश्वास करने वाले विद्यापति जन्मना शिव-भक्त थे। अनेक प्रकार से सम्मानित सुप्रतिष्ठित परिवार में जन्म लेने वाले विद्यापति ने अपने अध्ययन से कुल-परम्परा को आगे बढ़ाया। उषाकिरण खान ने विद्यापति की सामाजिक चेतना का विकास रेखांकित करते हुए उनके सर्जनात्मक व्यक्तित्व की छवियाँ शब्दांकित की हैं। मन्दाकिनी और कालिन्दी के साथ विद्यापति के दाम्पत्य का सरस वर्णन पाठक को मुग्ध कर देता है। विद्यापति की रामकहानी में शिवरूप माने जाने वाले 'उगना' की मार्मिक अन्तःकथा उपन्यास का एक अनन्य आकर्षण है। राजा शिवसिंह और रानी लक्ष्मणा (लखिमा) के साथ विद्यापति के उज्ज्वल रिश्तों को 'सिरजनहार' के पृष्ठों पर पढ़ना एक अभूतपूर्व अनुभव है, विशेषकर रानी लखिमा के साथ उनका अकथनीय सम्बन्ध उषाकिरण खान ने गहन अनुसन्धान और सशक्त कल्पना के द्वारा विद्यापति के वृत्तान्त को सजीव किया है। उपन्यास में स्थान-स्थान पर विद्यापति की रचनाओं के उद्धरण कथा को प्रामाणिक और गतिशील बनाते हैं। लेखिका की भाषा ने आंचलिकता के श्रेष्ठ तत्त्वों से पर्याप्त लाभ उठाया है। भारतीय ज्ञानपीठ की अधिसदस्यता के अन्तर्गत लिखा गया 'सिरजनहार' उपन्यास महाकवि विद्यापति के साथ-साथ उनके युग में व्याप्त सक्रियताओं का कथात्मक आकलन करता है। मैथिली की माधुरी में रचा-बसा 'सिरजनहार' निश्चित रूप से एक पठनीय संग्रहणीय उपन्यास है।-सुशील सिद्धार्थ
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