मानव मूल्य और साहित्य - 'सांस्कृतिक संकट या मानवीय तत्त्व के विघटन की जो बात बहुधा उठायी जाती रही है उसका तात्पर्य यही रहा है कि वर्तमान युग में ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो चुकी हैं। जिसमें अपनी नियति के इतिहास निर्माण के सूत्र मनुष्य के हाथों से छूटे हुए लगते हैं—मनुष्य दिनोंदिन निरर्थकता की ओर अग्रसर होता प्रतीत होता है। यह संकट केवल आर्थिक या राजनीतिक संकट नहीं है वरन जीवन के सभी पक्षों में समान रूप से प्रतिफलित हो रहा है। यह संकट केवल पश्चिम या पूर्व का नहीं है वरन समस्त संसार में विभिन्न धरातलों पर विभिन्न रूपों में प्रकट हो रहा है।' इस सन्दर्भ में बहुत पहले भारती ने साहित्य को परखने और जाँचने का कार्य किया था। यह मानवीय संकट आज और भी विकराल हो गया है और इसीलिए ये पुस्तक आज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है जितनी जब यह लिखी गयी थी।
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